एक अलिखित कानून बन गया कि घरों, दफ्तरों, नालियों, सड़कों और अस्पतालों की गन्दगी की सफाई करने के लिये भंगी जाति के लोगों ने ही जन्म लिया है। अन्य किसी भी सरकारी नौकरी में आरक्षित वर्ग के लोगों की किसी त्रुटिवश एक फीसदी भी या एक भी अभ्यर्थी के अधिक नियुक्ति हो जाने पर मनुवादियों द्वारा तत्काल हो-हल्ला मचाना शुरू कर दिया जाता है और झट से मनुवादी संरक्षक न्यायाधीशों द्वारा ऐसे मामलों में संज्ञान ले लिया जाता है। कुछ मामले तो ऐसे भी हैं, जहॉं पर मनुवादी न्यायाधीशों द्वारा स्वयं ही संज्ञान लिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने अनेक ऐसे निर्णय दिये हैं, जो संविधान की मूल भावना और आरक्षित वर्ग के लिये जरूर सामाजिक न्याय की मूल अवधारणा के विपरीत हैं। जिन्हें अनेक बार संसद ने निरस्त किया है। इसके उपरान्त भी यह सिलसिला बदस्तूर जारी है और आज तक न तो रुका है और न हीं रुकने वाला है।
हजारों सालों से सबकी गंदगी की सफाई करने वाली जाति को मनुवादियों ने अनेकानेक घृणित नाम दिये हैं। जैसे-मेहतर, भंगी, शूद्र और आजकल स्वीपर कहा जाता। जिसे ढोंगी महात्मा मोहनदास कर्मचन्द गॉंधी ने हरिजन कहा, जबकि गॉंधी इस बात से वाकिफ था कि गुजरात में जिसके मॉं-बाप का पता नहीं होता है, ऐसी नाजायज औलादों को हरिजन कहा जाता है। इस जाति के लोगों की दशा समाज में निम्नतम दर्जे की है। सबसे घृणित कार्य यही भंगी कहलाने वाली जाति के लोगों द्वारा किये जाते हैं। आजादी के बाद भी इन्हें अछूत से छूत बनाने के लिये किसी भी सरकार की ओर से कोई रचनात्मक कदम नहीं उठाया गया। अलबत्ता शुरुआत में नगर निगमों, नगरपालिकाओं और सभी स्थानीय निकायों में घरों, दफ्तरों, नालियों, सड़कों और अस्पतालों की गन्दगी की सफाई के लिये इन्हीं लोगों को सरकार द्वारा नियोजित किया जाने लगा। ये कहा जाये तो अनुचित नहीं होगा कि इन सभी घृणित समझे जाने वाले सफाई कार्यों में शतप्रतिशत इसी जाति के लोगों को नियुक्तियॉं दी जाने लगी। इसके चलते एक अलिखित कानून बन गया कि घरों, दफ्तरों, नालियों, सड़कों और अस्पतालों की गन्दगी की सफाई करने के लिये भंगी जाति के लोगों ने ही जन्म लिया है। अन्य किसी भी सरकारी नौकरी में आरक्षित वर्ग के लोगों की किसी त्रुटिवश एक फीसदी भी या एक भी अभ्यर्थी के अधिक नियुक्ति हो जाने पर मनुवादियों द्वारा तत्काल हो-हल्ला मचाना शुरू कर दिया जाता है और झट से मनुवादी संरक्षक न्यायाधीशों द्वारा ऐसे मामलों में संज्ञान ले लिया जाता है। कुछ मामले तो ऐसे भी हैं, जहॉं पर मनुवादी न्यायाधीशों द्वारा स्वयं ही संज्ञान लिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने अनेक ऐसे निर्णय दिये हैं, जो संविधान की मूल भावना और आरक्षित वर्ग के लिये जरूर सामाजिक न्याय की मूल अवधारणा के विपरीत हैं। जिन्हें अनेक बार संसद ने निरस्त किया है। इसके उपरान्त भी यह सिलसिला बदस्तूर जारी है और आज तक न तो रुका है और न हीं रुकने वाला है। जबकि इसके विपरीत घरों, दफ्तरों, नालियों, सड़कों और अस्पतालों की गन्दगी की सफाई करने वाले कर्मचारियों में शतप्रतिशत केवल और भंगी जाति के लोगों की ही नियुक्ति की जाती है, लेकिन इसे आज तक न तो किसी मनुवादी ने अदालत में चुनौती दी और न ही इस देश की कथित न्यायप्रिय न्यायपालिका ने स्वयं संज्ञान लेकर भारत सरकार से नोटिस जारी करके सवाल पूछा कि घरों, दफ्तरों, नालियों, सड़कों और अस्पतालों की गन्दगी की सफाई करने वाले कर्मचारियों में एक ही भंगी जाति के ही लोगों को क्यों नियुक्त किया जाता रहा है? अन्य और उच्च जाति के लोगों को इस कार्य में क्यों नियुक्तियॉं नहीं दी जाती हैं? केवल यही नहीं पिछले दो दशक से तो इस असंवैधानिक व्यवस्था से पीछा छुड़ाने के लिये सरकारी, अर्द्ध-सरकारी और निजी क्षेत्र में एक नायाब तरीका निकाल लिया है-सफाई कार्य ठेके पर दिये जा रहे हैं। ठेके उच्च जाति के लोगों द्वारा लिये जाते हैं, जबकि घरों, दफ्तरों, नालियों, सड़कों और अस्पतालों की गन्दगी की सफाई करने वालों में शतप्रतिशत केवल और केवल उसी भंगी/मेहतर जाति के लोगों को मनमानी शर्तों पर नियुक्त किया जाता है। इस चालाकीपूर्ण व्यवस्था में मोटी कमाई ठेकेदारों की होती है, जो सफाईकर्मियों से 10 से 12 घण्टे काम लेते हैं और मजदूरी के नाम पर तीन से चार हजार रुपये महावार वेतन देते हैं। उनका खुला शोषण होता है, कोई साप्ताहिक विश्राम तक नहीं दिया जाता है। जबकि होना तो ये चाहिये कि सरकार या जिन किन्हीं निकायों या उपक्रमों या संस्थानों द्वारा ठेकेदारी पर कोई भी कार्य करवाया जाता है तो ठेके की शर्तों में इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया जाना चाहिये कि जिस कार्य के लिये सरकार द्वारा अपने कर्मियों को जो वेतन दिया जाता है, उससे कम वेतन ठेकेदार द्वारा नहीं दिया जायेगा। यदि इतनी सी बात का ठेके की शर्तों में उल्लेख कर दिया जाये तो सभी क्षेत्र के कर्मियों का शोषण स्वत: रुक सकेगा और देश में मजदूरों को हड़ताल करने को मजबूर नहीं होना पड़ेगा। इसी कारण पिछले दिनों मजदूरों ने देशव्यापी हड़ताल की थी, लेकिन ये जानकर मुझे आश्चर्य हुआ कि किसी भी मजदूर संगठन द्वारा ये मांग नहीं उठायी गयी कि जिस काम के लिये सरकार 20 हजार महावार वेतन देती है, उसी कार्य के लिये ठेकेदार 4 हजार में करवाता है, इस बात को रोकने के लिये सरकार ठेके की शर्तों में संशोधन क्यों नहीं करती है? हमारे देश की व्यवस्था में सुधार के अनेक प्रयास हो रहे हैं, लेकिन मेहतर जाति के उत्थान के लिये कोई पुख्ता या कारगर कदम नहीं उठाये जा रहे हैं। जिसके चलते आज भी आऊट सोर्सिंग के जरिये घरों, दफ्तरों, नालियों, सड़कों और अस्पतालों की गन्दगी की सफाई इसी जाति के लोगों से नाम-मात्र की मजदूरी पर करवाये जा रहे हैं। यहॉं पर मैं इस बात का उल्लेख करना भी जरूरी समझता हूँ कि मेहतर/भंगी जाति के लोगों में आपसी सामाजिक एकता का अभाव होने के कारण भी उनका सारे देश में सरकार और ठेकेदारों द्वारा सरेआम इस प्रकार से शोषण किया जा रहा है। अन्यथा जिस दिन इस जाति के लोगों द्वारा सामाजिक रूप से एक होकर ये कड़ा निर्णय ले लिया जायेगा कि वे घरों, दफ्तरों, नालियों, सड़कों और अस्पतालों की गन्दगी की सफाई का कार्य अपनी शर्तों पर ही करेंगे, उसी दिन, बल्कि उसी क्षण इन्हें पचास हजार रुपये मासिक मजदूरी देने को भी सरकार और सफाई ऐजेंसियों को मजबूर होना पड़ेगा। बस एक दृढ और कड़ा निर्णय लेने की जरूरत है। डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश' HTML clipboard |