Tuesday, October 23, 2012
Monday, October 22, 2012
दलित का बाइक चलाना नागवार गुजरा, नाक काट डाली
दलित और आदिवासी समुदायों को आज भी उत्पीड़न के दंश
|
Sunday, October 21, 2012
सेवा में ,
माननीया श्रीमती मीरा कुमार जी
अध्यक्ष
लोकसभा
महामहिम राष्ट्रपति जी
भारत सरकार
महोदय ,
मैं प्रभात रंजन अनुसूचित जाति से आता हूँ ।मैं अपने मोहल्ले के ऊँची जाती के लोगो द्वारा बहुत दिनों से प्रताड़ित किया जाता रहा हूँ। जब बर्दास्त के बाहर हो गया तो न्याय की आस में स्थानीय अनुसूचित जाति / अनुसूचित जाति थाना में अपना रिपोर्ट दर्ज कराने गया तो वहां मेरा आवेदन लिया गया लेकिन कोई RECIEVING नहीं दी गई । उसके बाद पता चला की स्थानीय बरियातु थाना में मेरा आवेदन अग्रसारित कर दिया गया है।स्थानीय बरियातु थाना में बहुत रिक्वेस्ट किया उसके बाद यहाँ आकर जाँच किया गया ।फिर कुछ नहीं किया गया।जब मैंने स्थानीय थाना से जानकारी लेनी चाही तो जवाब मिला की तुम्हारे पछ में कोई गवाह नहीं मिलेगा।और sc/st
केस के झमेले में मुझे नहीं पड़ना।मैंने कहा की स्थान पर आपने जो पाया उसी को देखिये।लेकिन उसपर अभी तक कुछ नहीं हुआ।यहाँ मैंने देखा की किस तरह से sc/st के मामले को दबा दिया जाता है तथा जो व्यक्ति वहाँ जाता है उसको किस तरह और बेचारा बना दिया जाता है ।sc/st थाना जाने और आवाज़ उठाने की वज़ह से अब मेरे जान पर बन गयी है।अगर मुझे कुछ होता है तो उसका जिमेवार कौन होगा।साथ ही ऐसे sc/st थानों ,sc/st आयोग का क्या मतलब है जहाँ सबकुछ सिर्फ एक दिखावा है।ये दिखावा क्यों । sc/st के नाम पर खानापूर्ति क्यों। सधन्याबाद ।
विश्वश्भाजन
प्रभात रंजन
रांची ,झारखण्ड
नोट : थाना में दीये गये अपने आवेदन की प्रति भेज रहा हूँ ।
Friday, October 19, 2012
मां का साया नहीं, पिता दुधमुंही को लिए ढो रहा है सवारी
Thursday, October 18, 2012
गर गरीब ना होंगे तो राजनीति किसके नाम पर होगी?
अनाथ एवं जरूरतमंद बच्चो की मदद करे
विश्व खाद्य दिवस
कहीं मोटापा, कहीं भुखमरी का दंश
Tuesday, October 16, 2012
subhkamana
SAJAJJM (अनुसूचित (समग्र जाति अनुसूचित जनजाति महासंघ) की तरफ से जय माता दी, लाल रंग की चुनरी से साजा मां का दरबार, हर्षित हुआ आदमी, पुलकित हुआ संसार, नन्हे - नन्हे कदमो से, मां आये आपके द्वार ....मुबारक हो आपको नवरात्रि का त्यौहार ..जय माता दी. मां की ज्योति से नूर मिलता है, सबके दिलो को सुरूर मिलता है, जो भी जाता है मां के द्वार, कुछ ना कुछ जरुर मिलता है. 'शुभ नवरात्रि "
Monday, October 15, 2012
भू जल रिचार्ज
नलकूपों द्वारा रिचार्जिंग: छत से एकत्र पानी को स्टोरेज टैंक तक पहुंचाया जाता है। स्टोरेज टैंक का फिल्टर किया हुआ पानी नलकूपों तक पहुंचाकर गहराई में स्थित जलवाही स्तर को रिचार्ज किया जाता है। इस्तेमाल न किए जाने वाले नलकूप से भी रिचार्ज किया जा सकता है।
गड्ढे खोदकर: ईंटों के बने ये किसी भी आकार के गड्ढे होते हैं। इनकी दीवारों में थोड़ी थोड़ी दूरी पर सुराख बनाए जाते हैं। गड्ढे का मुंह पक्की फर्श से बंद कर दिया जाता है। इसकी तलहटी में फिल्टर करने वाली वस्तुएं डाल दी जाती हैं।
सोक वेज या रिचार्ज साफ्ट्स: इनका इस्तेमाल वहां किया जाता है जहां की मिट्टी जलोढ़ होती है। इसमें 30 सेमी ब्यास वाले 10 से 15 मीटर गहरे छेद बनाए जाते हैं। इसके प्रवेश द्वार पर जल एकत्र होने के लिए एक बड़ा आयताकार गड्ढा बनाया जाता है। इसका मुंह पक्की फर्श से बंद कर दिया जाता है। इस गड्ढे में बजरी, रोड़ी, बालू इत्यादि डाले जाते हैं।
खोदे गए कुओं द्वारा रिचार्जिंग: छत के पानी को फिल्ट्रेशन बेड से गुजारने के बाद इन कुंओं में पहुंचाया जाता है। इस तरीके में रिचार्ज गति को बनाए रखने के लिए कुएं की लगातार सफाई करनी होती है।
खाई बनाकर: जिस क्षेत्र में जमीन की ऊपरी पर्त कठोर और छिछली होती है, वहां इसका इस्तेमाल किया जाता है। जमीन पर खाई खोदकर उसमें बजरी, ईंट के टुकड़े आदि भर दिया जाता है। यह तरीका छोटे मकानों, खेल के मैदानों, पार्कों इत्यादि के लिए उपयुक्त होता है।
रिसाव टैंक: ये कृत्रिम रूप से सतह पर निर्मित जल निकाय होते हैं। बारिश के पानी को यहां जमा किया जाता है। इसमें संचित जल रिसकर धरती के भीतर जाता है। इससे भू जल स्तर ऊपर उठता है। संग्र्रहित जल का सीधे बागवानी इत्यादि कार्यों में इस्तेमाल किया जा सकता है। रिसाव टैंकों को बगीचों, खुले स्थानों और सड़क किनारे हरित पट्टी क्षेत्र में बनाया जाना चाहिए.
पानी की खातिर… रेनवाटर हार्वेस्टिंग भारत की बहुत पुरानी परंपरा है। हमारे पुरखे इसी प्रणाली द्वारा अनमोल जल संसाधन का मांग और पूर्ति में संतुलन कायम रखते थे। .............................................................. जल संचय के साथ जरूरी है जल स्रोतों का रखरखाव जल संचय के साथ जरूरी है जल स्रोतों का रखरखाव
हमारे शहरों में पानी की मांग तेजी से बढ़ रही हैं। तेजी से बढ़ती हुई शहरी जनसंख्या का गला तर करने के लिए हमारी नगरपालिकाएं आदतन कई किमी दूर अपनी सीमा से परे जाकर पानी खींचने का प्रयास कर रही हैं। लेकिन हमारी समझ में यह नहीं आता है कि आखिर सैकड़ों किमी दूर से पानी खींचने का यह पागलपन क्यों किया जा रहा है? इसका प्रमुख कारण हमारे शहरी प्लानर, इंजीनियर, बिल्डर और आर्किटेक्ट हैं जिन्हें कभी नहीं बताया जाता कि कैसे सुलभ पानी को पकड़ा जाए। उन्हें अपने शहर के जल निकायों की अहमियत को समझना चाहिए। इसकी जगह वे लोग जल निकायों की बेशकीमती जमीन को देखते हैं, जिससे जल स्नोत या तो कूड़े-करकट या फिर मलवे में दबकर खत्म हो जाते हैं।
देश के सभी शहर कभी अपने जल स्नोतों के लिए जाने जाते थे। टैंकों, झीलों, बावली और वर्षा जल को संचित करने वाली इन जल संरचनाओं से पानी को लेकर उस शहर के आचार विचार और व्यवहार का पता लगता था। लेकिन आज हम धरती के जलवाही स्तर को चोट पहुंचा रहे हैं। किसी को पता नहीं है कि हम कितनी मात्रा में भू जल का दोहन कर रहे हैं। यह सभी को मालूम होना चाहिए कि भू जल संसाधन एक बैंक की तरह होता है। जितना हम निकालते हैं उतना उसमें डालना (रिचार्ज) भी पड़ता है। इसलिए हमें पानी की प्रत्येक बूंद का हिसाब-किताब रखना होगा।
1980 के शुरुआती वर्षों से सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट रेनवाटर हार्वेस्टिंग संकल्पना की तरफदारी कर रहा है। इसे एक अभियान का रूप देने से ही लोगों और नीति-नियंताओं की तरफ इसका ध्यान गया। देश के कई शहरों ने नगरपालिका कानूनों में बदलाव कर रेनवाटर हार्वेस्टिंग को आवश्यक कर दिया। हालांकि अभी चेन्नई ही एकमात्र ऐसा शहर है जिसने रेनवाटर हार्वेस्टिंग प्रणाली को कारगर रूप से लागू किया है।
2003 में तमिलनाडु ने एक अध्यादेश पारित करके शहर के सभी भवनों के लिए इसे जरूरी बना दिया। यह कानून ठीक उस समय बना जब चेन्नई शहर भयावह जल संकट के दौर से गुजर रहा था। सूखे के हालात और सार्वजनिक एजेंसियों से दूर हुए पानी ने लोगों को उनके घर के पीछे कुओं में रेनवाटर संचित करने की अहमियत समझ में आई।
यदि किसी शहर की जलापूर्ति के लिए रेनवाटर हार्वेस्टिंग मुख्य विकल्प हो, तो यह केवल मकानों के छतों के पानी को ही संचित करने तक ही नहीं सीमित होना चाहिए। वहां के झीलों और तालाबों कासंरक्षण भी आवश्यक रूप से किया जाना चाहिए। वर्तमान में इन संरचनाओं को बिल्डर्स और प्रदूषण से समान रूप में खतरा है। बिल्डर्स अवैध तरीके से इन पर कब्जे का मंसूबा पाले रहते हैं वहीं प्रदूषण इनकी मंशा को सफल बनाने की भूमिका अदा करता है।
इस मामले में सभी को रास्ता दिखाने वाला चेन्नई शहर समुद्र से महंगे पानी के फेर में कैद है। अब यह वर्षा जल की कीमत नहीं समझना चाहता है। अन्य कई शहरों की तर्ज पर यह भी सैकड़ों किमी दूर से पानी लाकर अपना गला तर करना चाह रहा है। भविष्य में ऐसी योजना शहर और देश के लिए महंगी साबित होगी। ……………………………………………………….. दृढ़ इच्छाशक्ति से ही निकलेगा समाधान घोर जल संकट चिंता का विषय है। आखिर करें तो क्या करें। वर्षा जल संचय का मतलब बरसात के पानी को एकत्र करके जमीन में वापस ले जाया जाए। 28 जुलाई 2001 को दिल्ली के लिए तपस की याचिका पर अदालत ने 100 वर्गमीटर प्लॉट पर रेनवाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम (आरडब्ल्यूएच) अनिवार्य कर दिया। उसके बाद फ्लाईओवर और सड़कों पर 2005 में इस प्रणाली को लगाना जरूरी बनाया गया। लेकिन हकीकत में कोई सामाजिक संस्था इसको लागू करने के लिए खुद को जिम्मेदार नहीं मानती है। सीजीडब्ल्यूए को नोडल एजेंसी बनाया गया था लेकिन उनके पास कर्मचारी और इच्छाशक्ति में कमी है। इस संस्था ने अधिसूचना जारी करने और कुछ आरडब्ल्यूएच के डिजाइन देने के अलावा कुछ नहीं किया है। एमसीडी, एनडीएमसी के पास इस बारे में तकनीकी ज्ञान नहीं है। दिल्ली जलबोर्ड में इच्छाशक्ति की कमी है। वे सीजीडब्ल्यूए को दोष देकर अपनी खानापूर्ति करते हैं। हमारे पूर्वजों ने बावड़ियां बनवाई थी। तालाब बनवाए थे। जिन्हें कुदरती रूप से आरडब्ल्यूएच के लिए इस्तेमाल किया जाता था। सरकार चाहे तो इनसे सीख ले सकती है। आज 12 साल बाद भी सरकार के पास रेनवाटर हार्वेस्टिंग को लेकर कोई ठोस आंकड़ा नहीं उपलब्ध है। सरकार को नहीं पता है कि कितनी जगह ऐसी प्रणाली काम कर रही है। केवल कुछ आर्थिक सहायता देने से ये कहानी आगे नहीं बढ़ेगी। इच्छाशक्ति होगी तो रास्ता भी आगे निकल आएगा। किसी एक संस्था को जिम्मेदार बनाना पड़ेगा और कानून को सख्त करने की जरूरत होगी। एक ऐसी एजेंसी अनिवार्य रूप से बनाई जानी चाहिए जहां से जनता रेनवाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम से जुड़ी सभी जानकारियां ले सके। जागरूकता ही सफलता हासिल होगी। |
Sunday, October 14, 2012
आरक्षण में कितनी ईमानदारी?
अधिकांश पार्टियां और नेता पदोन्नति में आरक्षण के मुद्दे पर मानसून सत्र के अंतिम क्षणों में संसद में ट्वंटी-20 क्रिकेट खेलने जैसी मुद्रा में दिखे। सांसद चिल्लाते रहे, कागज फाड़े गए और स्थिति यहां तक पहुंच गई कि इस मुद्दे पर अपने क्षेत्र में अपने वोट बैंक को प्रभावित करने के लिए शारीरिक मुठभेड़ को भी अंजाम दिया गया। एक अपेक्षित आरोप लगा कि यह हंगामा कोल ब्लॉक आवंटन पर उठे बड़े विवाद से निकलने का एक राजनीतिक उपक्रम था। इस हंगामे का किसी पार्टी ने विरोध नहीं किया। यह बात भी हुई कि संसद में अकसर शोर मचाने वाली समाजवादी पार्टी ने अपने मतदाता आधार के मद्देनजर अन्य पिछड़ा वर्ग को भी पदोन्नति में आरक्षण का लाभ दिलवाने के लिए ही संशोधन विधेयक का विरोध किया है। इस मामले में एक सच्चाई यह है कि भारत सरकार के 93 सचिवों में से एक भी दलित नहीं है। इस संख्या को दूसरे आंकड़ों के बरक्स रखकर देखें। आंकड़े बताते हैं कि कार्यरत नौकरशाहों में से हर पांच में से एक नौकरशाह दलित समुदाय से है, जो आरक्षण व्यवस्था का परिणाम है। एक रूढिवादी तर्क के बावजूद कोई भी इस बात को तार्किक ढंग से सही नहीं ठहरा सकता कि क्यों किसी भी दलित को इस लायक नहीं समझा गया कि उसे प्रोन्नत करके नौकरशाही के उच्च पदों पर बिठाया जा सके। स्पष्ट है, व्यवस्था में भेदभाव अभी कायम है, जिसे आरक्षण से या किसी अन्य तरीके से खत्म किए जाने की जरूरत है। आरक्षण से जुड़ा दूसरा मुद्दा है, भागीदारी की कीमत पर योग्यता की हानि। जिस संविधान की प्रस्तावना में ही अवसर की समानता का उल्लेख है, उसके तहत भागीदारी ही अपने आप में व्यवस्था में योग्यता के होने का प्रमाण है। दूसरी ओर, कार्यपालिका के कामकाज का गिरता स्तर, नैतिकता के मोर्चे पर खराब प्रदर्शन (ईमानदार देशों की सूची में हमारी रैंकिंग 95 है, हम इस मामले में चीन से बहुत पीछे हैं), जाहिर है, योग्यता के पैमाने पर भारतीय व्यवस्था अपना बचाव नहीं कर सकती। हालांकि इस विधेयक के केंद्र में दो और मुद्दे भी हैं। पहला मुद्दा इसकी प्रक्रिया से संबद्ध है। यह विधेयक सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ है, जोकि पदोन्नति में आरक्षण के मसले पर हमेशा से ही संसद से असहमत रहा है। हमारा सुप्रीम कोर्ट संविधान का रक्षक और व्याख्याकार है, उसके मत या विचार को पलटने की दिशा में बहुत सावधानी बरतनी चाहिए। एक और मुद्दा, आरक्षण के अपने विविध आयाम हैं। आरक्षण को प्रारंभ में एक नियत समय के लिए लागू किया गया था और इसे अभी भी खत्म नहीं किया जा सका है। प्रावधान तो यह है कि इसके प्रभावों और इससे लाभान्वित होने वालों के सम्बंध में जानकारी को समय-समय पर दुरूस्त करना और लगातार संशोधित करना चाहिए, लेकिन ऎसा नहीं हो रहा है। काफी समय से हम देख रहे हैं कि दलितों और अन्य पिछड़ा वर्ग के बीच कुछ नए शब्दों (जैसे अति पिछड़े, महा दलित, पिछड़ी महिला) का सूत्रपात हुआ है। दलितों और गैर-दलितों के बीच खाई बढ़ती ही जा रही है। अधिकांश मामलों में आरक्षण का फल पुराने लोगों ने ही लगातार चखा है। आईआईएम और आईआईटी (आईआईएम-अहमदाबाद भी - जिसका मैं भी एक हिस्सा रहा हूं) में प्रवेश लेने वाले आरक्षित श्रेणी के छात्रों की प्रोफाइल देखें, तो आप पाएंगे कि उनमें से अधिकांश छात्र अच्छे परिवारों से ताल्लुक रखते हैं, उनमें से अधिकांश एक खास जाति से आते हैं, जो महानगरों में रहती है या महानगरों से संबद्ध है। हमें यह मालूम करना चाहिए कि आरक्षण क्यों अपने लक्ष्य को पूरा करने में नाकाम रहा। आरक्षण की वजह से जो क्रांति होने वाली थी, उससेे सुदूर प्रदेशों, गांवों और पिछड़ों में आर्थिक रूप से दरिद्र लोगों के बीच समानता क्यों नहीं आ सकी। यदि आरक्षण समानता लाने की एक अनिवार्य औषधि है, तो हमें दलितों और अन्य पिछड़े वर्ग के उन लोगों को ध्यान में रखना होगा, जिन्हें वास्तव में इसकी जरूरत है। हमें आरक्षण से जुड़े एक पाखंड पर भी विचार करना चाहिए। ज्यादातर राजनीतिक पार्टियां पदोन्नति में आरक्षण सम्बंधी विधेयक को पारित करने के लिए सहमत हो गई हैं, लेकिन उन्हें अपने दलीय आधार में यह भी देखना चाहिए कि उन्होंने दल के अंदर कितने दलितों को भागीदार बनाया है। दलों के निर्णायक दफ्तरों में बहुत कम ऎसे पद हैं, जिनपर दलित विराजमान हैं। इस सच्चाई को किनारे कर दीजिए कि हर पांचवां सांसद दलित है, लेकिन सच है कि कोई पार्टी किसी दलित को प्रधानमंत्री बनवाने में कामयाब नहीं हुई है। देश में 13 प्रधानमंत्री हुए हैं, जिनमें से 7 प्रधानमंत्री कांग्रेस ने दिए हैं। जब पार्टियां अपनी कोर कमेटियां बनाती हैं, तो उनके चयन मापदंड में जाति का पिछड़ापन कहीं नहीं दिखता है। वरिष्ठता, पार्टी को योगदान, मतदाताओं के बीच व्यक्तिगत प्रभाव ही ज्यादा मायने रखता है। ऎसा उस संसदीय व्यवस्था में हो रहा है, जिसमें छह दशक से जाति के आधार पर सीटें आरक्षित हैं। लोकतंत्र तभी मजबूत होगा, जब राजनीतिक पार्टियां दलितों और पिछड़ी जातियों को उच्च स्तर पर पार्टी के नेतृत्व में ज्यादा जगह देंगी। अंतत: जो राजनीतिक दबाव बन रहा है, उसके तहत यह विधेयक 2014 में होने वाले लोकसभा चुनावों के आस-पास पारित हो जाएगा और लागू भी हो जाएगा। हमें इस बात पर बल देना होगा कि इस आरक्षण को शुद्ध राजनीतिक रणनीति के तहत नहीं, बल्कि वैज्ञानिक सोच और सामाजिक समझ के साथ लागू किया जाए। इसके प्रभाव की समीक्षा के पैमाने तय करने पड़ेंगे, अच्छे और बुरे प्रभावों की निगरानी करनी पड़ेगी और प्रभाव सम्बंधी रिपोर्टो को सार्वजनिक करना होगा। हर पांच साल में यह देखना पड़ेगा कि समाज के कौन-से हिस्से लाभान्वित हो रहे हैं। शायद, आरक्षण प्रतिनिधित्व की अल्पकालिक खाइयों को पाटने में ही सफल हो सकेगा। जिस देश में 25,000 से ज्यादा जातियां, उप-जातियां हैं, जिस देश की मुद्रा पर ही 15 भाषाएं मुद्रित हैं, उस देश मे विभाजन और गुट-वाद बड़ी चुनौती बना रहेगा, इस पक्ष पर ध्यान देने की जरूरत है।
--------------------------------------------------------------------
पदोन्नति में आरक्षण पर अधिकतर दल सहमत
सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को पदोन्नति में आरक्षण को लेकर संविधान संशोधन के मुद्दे पर लगभग सभी दलों में सहमति बन गई है.
|