Tuesday, November 13, 2012

ऊंची जाति की लड़की से शादी की सजा, दलितों के घर राख


तमिलनाडु में दलित लड़के और गैर दलित लड़की के प्रेम विवाह की सजा 148 दलित घरों को भुगतना पड़ा। 23 साल के इलावरसन 20 साल की दिब्या से प्रेम करता था। दिव्या भी उसको बेहद प्यार करती थी। दिब्या के घर वाले इस रिश्ते को किसी भी हाल में स्वीकार करने को राजी नहीं थे। करीब एक महीना पहले दिव्या अपने प्रेमी इलावरसन के साथ घर से भाग गई।

दिव्या और इलावरसन ने अपने प्रेम को अंजाम तक पहुंचाने के लिए मंदिर में शादी कर ली। इस शादी से गैरदलित तिलमिलाए हुए थे। वे लगातार इलावरसन के परिवार वालों को धमकी देते रहे कि इस रिश्ते को खत्म कर लो। दिव्या के परिवार वालों ने इलावरन के घर जाकर धमकी दी। इलावरसन धमकी के मद्देनजर स्थानीय सेलम पुलिस से सुरक्षा की गुहार लगाई। जब बात नहीं बनी तो गैरदलितो ने पंचायत करके दिव्या को वापस करने का फरमान सुनाया। दिब्या ने इसे नकारते हुए अपने पिता के घर जाने से इनकार कर दिया।

 

Tuesday, October 23, 2012

मैं मल में पड़ी रही कोई नहीं आया


अंबाला की रहने वाली सरोज रोज़ लोगों के घरों से उनका मलमूत्र सर पर ढोती रहीं लेकिन जब वो उसी मैले में गिर पडीं तो किसी ने उन्हें हाथ नहीं लगाया.

सरोज की उम्र अब 50 के पास पहुँच रही है लेकिन आज भी उस क्षण को याद करते हुए रो पड़ती हैं.
सरोज बताती हैं कि 13 साल की उम्र से वो मैला ढ़ोने का काम करती आई हैं.
"जब उन्होंने देखा कि मैं वाकई दर्द से बिलख रही हूँ और उठा नहीं जा रहा तो भी किसी ने उन्हें उठाया नहीं एक बांस नीचे लगा कर मुझे बैठा दिया. मुझे धमकाया और पुलिस की धमकी दी और कहा कि बिना साफ़ करे वहां से हिल नहीं सकती"

सरोज, पूर्व सफाई मजदूर

वो सालों तक यह काम करती रहीं क्योंकि उनके पास इसके अलावा कोई और काम नहीं था. वो याद करती हैं कि किस तरह अपनी गर्भावस्था के दौरान एक दिन वो एक लकड़ी की सीढ़ी से सिर पर लोगों का मलमूत्र साफ़ कर नीचे उतर रहीं थीं कि वो सीढ़ी टूट गई.
सारा मैला सरोज के सिर पर गिर पड़ा और वो खुद ऊँचाई से ज़मीन पर आन पडीं. वो मदद के लिए गुहार लगाती रहीं लेकिन बदले में उन्हें मिली सर्फ गलियां.
सरोज कहतीं हैं, "जब उन्होंने देखा कि मैं वाकई दर्द से बिलख रही हूँ और उठा नहीं जा रहा, तो भी किसी ने मुझे उठाया नहीं, बल्कि एक बांस नीचे लगा कर मुझे बिठा दिया. मुझे धमकाया और पुलिस की धमकी दी और कहा कि बिना साफ़ करे वहां से हिल नहीं सकती."
डरी हुई सरोज ने बिलखते हुए वो जगह साफ़ की और किसी तरह घर पहुँचीं.

'अदृश्य भारत'

 
भारत में सफाई मज़दूरों की व्यथा और इस मैले पेशे से बाहर आने की उनकी लड़ाई को भाषा सिंह ने पास से देखा है और कई किस्से लिपिबद्ध किए हैं.
सरोज की तरह की मंदसौर की लीला बाई ने जब मैला ढ़ोने से मना किया तो पूरे गावं ने उनकी एक स्वर से निंदा की और उन्हें गावं से बाहर निकल जाने को कहा.
डरे हुए उनके पति और पीढ़ीयों से इसी काम में लगे उनके ससुराल वालों ने उन्हें बहुत प्रताड़ित किया लेकिन वो टस से मस ना हुईं.
आज लीला बाई मेहनत मज़दूरी कर के खाती हैं और अपने जैसे अन्य लोगों को इस पेशे से बाहर निकालने के लिए काम कर रहीं हैं.
लीला बाई कहती हैं "सरकारी योजनाएँ केवल दिल्ली में ही सुनाई देतीं हैं गावों बस्तियों में दिखाई नहीं देतीं. "
 2011 की जनगणना के बाद साढ़े सात लाख लोग भारत में मैला ढ़ोने का काम करते हैं."
केंद्रीय योजना आयोग अपने शौचालय को ठीक करने के लिए लिए 35 लाख ख़र्च कर सकता है लेकिन मैला ढ़ोने की अमानवीय परंपरा पर कोई कारगर योजना नहीं बना सकता.

 

Monday, October 22, 2012

दलित का बाइक चलाना नागवार गुजरा, नाक काट डाली

मध्य प्रदेश में 31 वर्षीय प्रकाश जाटव नाम के दलित की नाक इसलिए काट दी गई क्योंकि वह बाइक चला रहा था। ऊंची जाति के जिन लोगों ने उसकी नाक काटी उनका कहना था कि प्रकाश उनके सामने बाइक नहीं चला सकता है।

बताया जा रहा है कि इस घटना को अंजाम देने में 12 लोग शामिल थे। इन लोगों ने पहले प्रकाश की जमकर पिटाई की और उसके बाद एक चाकू निकाला और उसकी नाक काट दी। जानकारी के मुताबिक इस हरकत को अंजाम देने वाले लोग कुशवाहा समाज से हैं और उन्हें प्रकाश की तरक्की से काफी जलन थी। इसके चलते उन लोगों में प्रकाश में कई बार नोंक-झोंक भी हो चुकी थी। नाक काटने के बाद सभी उसे खून में लथ-पथ छोड़कर भाग गए।


दलित और आदिवासी समुदायों को आज भी उत्पीड़न के दंश


 छह दशक से ज्यादा की आजादी और जनतंत्र के बावजूद अगर समाज का एक बड़ा तबका अपने खिलाफ होने वाली हिंसा के सामने खुद को असहाय पाता है तो निश्चय ही यह एक विचलित कर देने वाली स्थिति है। लेकिन सच्चाई यही है कि  से मुक्ति नहीं मिल सकी है। बल्कि पिछले कुछ सालों में इन वर्गों के खिलाफ हिंसा की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है। पिछले हफ्ते राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष और सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालकृष्णन ने 'अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) कानून-1989 और नियम-1995 के कार्यावन्यन की स्थिति' विषय पर एक रिपोर्ट जारी की। यह रिपोर्ट बताती है कि दलितों और आदिवासियों को अत्याचार से बचाने के लिए विशेष कानून तो बना दिए गए, पर इन्हें ठीक से लागू नहीं किया गया। यही कारण है कि इन विशेष कानूनों के बावजूद उनके खिलाफ हिंसा का सिलसिला थमा नहीं है, बल्कि बढ़ता गया है। देश भर में ऐसी घटनाओं की पड़ताल के बाद तैयार की गई इस रिपोर्ट में कई वैसे तथ्य सामने आए हैं जो इन वर्गों के उत्पीड़न की बदलती प्रकृति और उसमें कमी न आ पाने के कारणों पर रोशनी डालते हैं।
दरअसल, समाज के ताकतवर समूहों के भीतर दलितों-आदिवासियों के प्रति सामंती और मध्ययुगीन पूर्वग्रह अब भी बने हुए हैं। कई ऐसी घटनाएं सामने आ चुकी हैं जिनमें बेहद मामूली बातों के लिए ऊंची कही जाने वाली जाति के लोगों ने किसी दलित बस्ती पर हमला कर दिया और घरों में आग लगा दी। कहीं सिर्फ इसलिए किसी युवक को मार डाला गया,   क्योंकि वह किसी वंचित जाति से होने वजूद पढ़ने में तेज था। हाल ही में खुद मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष को अपने गुजरात दौरे के क्रम में इस शिकायत से रूबरू होना पड़ा कि वहां के कम से कम सतहत्तर गांवों में सवर्ण जाति के लोगों ने दलितों का बहिष्कार करके उन्हें गांव छोड़ने पर मजबूर कर दिया। यह उस राज्य की हकीकत है जिसके तेज विकास का जोर-शोर से प्रचार किया जा रहा है। वहां दोषियों के खिलाफ कोई कार्रवाई करने के बजाय पुलिस अक्सर दलित उत्पीड़न की शिकायतें दर्ज करने से ही इनकार कर देती है। फिर, किसी तरह दर्ज मामलों में सजा सुनाए जाने की दर महज पांच फीसद है।
देश के दूसरे इलाकों में भी तस्वीर इससे ज्यादा अलग नहीं है। इसकी पुष्टि करते हुए इस रपट में कहा गया है कि दर्ज मामलों में कम से कम एक चौथाई को जांच के क्रम में ही 'त्रुटिपूर्ण तथ्यों' का हवाला देकर रफा-दफा कर दिया जाता है या उन्हें अनुसूचित जाति-जनजाति कानून से संबंधित धाराओं के बजाय सामान्य कानूनों के तहत दर्ज किया जाता है। यानी पीड़ितों की मदद करने के बजाय एक तरह से समूचा तंत्र आरोपियों को बचाने या मामले को हल्का बनाने में ही अपनी ऊर्जा लगा देता है। कई बार अदालतें भी ऐसे मामलों में इंसाफ से दूर खड़ी नजर आती हैं। बिहार के बथानी टोला हत्याकांड मामले में पटना हाईकोर्ट के हालिया फैसले से ऐसा ही संदेश गया है। इसलिए मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष ने ठीक ही अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण कानून के तहत दर्ज मामलों की त्वरित सुनवाई के लिए विशेष सरकारी वकील और अलग अदालतों के गठन की वकालत की है। आयोग की इस सिफारिश को स्वीकार किया जाना चाहिए।

Sunday, October 21, 2012

 महोदया खतरा मेरी सुरक्षा कौन करेगा। 

सेवा में ,
माननीया श्रीमती मीरा कुमार जी 
अध्यक्ष
लोकसभा  
महामहिम राष्ट्रपति जी 
भारत सरकार

महोदय ,
 मैं प्रभात  रंजन अनुसूचित जाति  से  आता हूँ ।मैं अपने  मोहल्ले के ऊँची  जाती के लोगो द्वारा बहुत दिनों से प्रताड़ित किया जाता  रहा हूँ। जब बर्दास्त के बाहर हो गया तो न्याय की आस में स्थानीय अनुसूचित जाति / अनुसूचित जाति थाना में अपना रिपोर्ट दर्ज  कराने गया तो  वहां मेरा आवेदन लिया गया लेकिन  कोई RECIEVING नहीं दी गई । उसके बाद पता चला की स्थानीय बरियातु थाना में मेरा आवेदन अग्रसारित कर दिया गया है।स्थानीय बरियातु थाना में बहुत रिक्वेस्ट किया उसके बाद यहाँ आकर जाँच किया  गया ।फिर कुछ  नहीं किया गया।जब मैंने स्थानीय थाना से जानकारी लेनी चाही तो जवाब मिला की तुम्हारे पछ में कोई गवाह नहीं मिलेगा।और sc/st
 केस के झमेले में मुझे नहीं पड़ना।मैंने कहा की स्थान पर आपने जो पाया उसी को देखिये।लेकिन उसपर अभी तक कुछ नहीं हुआ।यहाँ मैंने देखा की किस तरह से sc/st के मामले को दबा दिया जाता है तथा जो व्यक्ति वहाँ जाता है उसको किस तरह और बेचारा बना दिया जाता है ।sc/st थाना जाने और आवाज़ उठाने की वज़ह से अब मेरे जान पर बन गयी है।अगर मुझे कुछ होता है तो उसका जिमेवार कौन होगा।साथ ही ऐसे sc/st थानों ,sc/st आयोग का क्या मतलब है जहाँ सबकुछ सिर्फ एक दिखावा है।ये दिखावा क्यों । sc/st  के नाम पर खानापूर्ति क्यों। सधन्याबाद ।

विश्वश्भाजन  

 प्रभात रंजन 
रांची ,झारखण्ड 

नोट : थाना में दीये गये अपने आवेदन की प्रति भेज रहा हूँ ।

Friday, October 19, 2012

मां का साया नहीं, पिता दुधमुंही को लिए ढो रहा है सवारी

 राजस्थान के भरतपुर में एक रिक्शा चालक पिछले कुछ दिनों से कपड़े में अपनी नवजात बेटी को एक हाथ में लिए और दूसरे से रिक्शे के हैंडल को पकड़े सवारी को उनकी मंजिल तक पहुंचाता दिखता है।

अपनी एक माह की दुधमुंही बच्ची को इस तरह मौसम के थपेड़ों के बीच घूमने को मजबूर रिक्शाचालक का नाम बबलू है। दलित जाति से रिश्ता रखने वाले बबलू को उसकी जीवन संगिनी शांति बच्ची को पैदा करते ही चल बसी।

रोज कमाकर परिवार का पेट पालने वाले बबलू के लिए ज्यादा समय शोक मनाने के लिए भी नहीं बचा। और किसी तरह क्रिया क्रम करने के बाद अपने बूढ़े पिता का भार संभाल रहे बबलू को रिक्शे का हैंडल संभालना पड़ा।

घर में और किसी के न होने की वजह से बबलू को अपनी नन्ही परी को साथ लेकर ही घूमना पड़ता है। बबलू कहता है कि कभी-कभार वह बच्ची को अपने पिता के पास छोड़कर जाता है लेकिन बीच में बार-बार दूध पिलाने के लिए वापस भी आता है।

शांति की आखिरी निशानी को बड़े जतन से पालने की कोशिश भले ही बबलू कर रहा हो लेकिन पेट की भूख की वजह से बदलते मौसम की वजह से बच्ची पिछले दो दिनों से बीमार है और भरतपुर के सरकारी अस्पताल में भर्ती है।

आज भी बबलू अपनी शांति के आखिरी पलों को याद कर रो पड़ता है। बहते हुए आंसू के बीच उसकी कांपती हुई आवाज ने कहा, ''बच्ची के पैदा होने के बाद खून की कमी के कारण शांति की तबीयत बिगड़ी, डॉक्टर ने खून लाने के लिए कहा, मैं खून लेकर लौटा तो पता चला कि शांति की सांस हमेशा के लिए उखड़ गई, मेरी आँखों के आगे अँधेरा पसर गया।"

बबलू ने बताया कि करीब 15 वर्ष के दांपत्य जीवन के बाद उनके जीवन में पहली संतान के रूप में यह बच्ची तमाम खुशियां लेकर आई थी।

आर्थिक तंगी से जूझ रहे बबलू ने कहा कि वह एक किराए के कमरे में रहता है जहां पर उसे प्रतिमाह 500 रुपये देना होता है। इसके अलावा प्रतिदिन 30 रुपये रिक्शा का किराया भी देता है।

पिता की जिम्मेदारी भलिभांति समझते हुए बबलू कहता है, "कभी कभी किराये के कमरे पर पिता के साथ बेटी को छोड़ जाता हूं, बीच-बीच में उसे दूध पिलाने लौट आता हूं। ये शांति की अमानत है, इसलिए मेरी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है।"

आज जब तमाम शहरों में बेटी के पैदा होने पर परिजनों के चेहरे मुरझा जाते हैं, लोग दुधमुंही बच्ची को लावारिस छोड़ कर भाग जाते हैं, ऐसे में गरीब बबलू का बेटी से लगाव एक उदाहरण पेश करता है।

बबलू का कहना है "शांति तो इस दुनिया में नहीं है, लेकिन मेरी हसरत है ये उसकी धरोहर फूले फले, मेरा सपना है उसे बेहतरीन तालीम मिले। हमारे लिए वो बेटे से भी बढ़ कर है।"

समाज से उसे मदद मिलने के प्रश्न पर बबलू कहता है 'हमदर्दी के अल्फाज तो बहुत मिले, लेकिन उसे कोई मदद नहीं मिली। रिश्तेदारों ने भी कोई मदद नहीं की। 

 

Thursday, October 18, 2012

गर गरीब ना होंगे तो राजनीति किसके नाम पर होगी?


भारत में गरीबी बढ़ने का एक अहम कारक जागरुकता का अभाव भी है. एक गरीब अपने अधिकारों के बारे में जानता ही नहीं जिसकी वजह से उसका शोषण होता है. अगर गरीब को पता हो कि उसे कहां से अपना राशन कार्ड, कहां से मनरेगा के लिए काम मिलेगा तो क्या वह गरीब अपनी गरीबी से लड़ नहीं सकता! पर उसकी इस समझ को भारत की राजनीति आगे बढ़ने ही नहीं देती.


भारतीय राजनीति का यह काला रूप ही है जो गरीबों को अशिक्षित और गरीब बनाए रखना चाहती है ताकि उसकी राजनीति चलती रहे वरना जिस दिन गरीब इंसान शिक्षित होकर गरीबी से उठ जाएगा उस दिन इन नेताओं को राजनीति करने का सबसे बड़ा और घातक अस्त्र हाथ से चला जाएगा. और जब गरीबी हटेगी और शिक्षा का स्तर बढ़ेगा तो उम्मीद है कुछ सच्चे और ईमानदार नेता राजनीति में आएं जो अपने क्षेत्र के विकास के लिए सच्चे मन से कार्य करें.


यदि हम दुनिया के दूसरे देशों की बात करें तो हमारे आसपास के देश भी सामाजिक क्षेत्र पर हमसे ज्यादा खर्च करते हैं.


गरीबों का मजाक

हाल ही में योजना आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि शहरों में रहने वाले यदि 32 रुपये और ग्रामीण क्षेत्रों के लोग 26 रुपये प्रतिदिन खर्च करते हैं तो वे गरीबी रेखा के दायरे में शामिल नहीं माने जाएंगे. अब आप इस रिपोर्ट को बकवास नहीं तो क्या कहेंगे? आप सोच कर देखिए जिस देश का योजना आयोग 32 और 26 रुपए खर्च करने वाले को गरीब ना मानें वहां गरीबी कैसे कम होगी?


भारत में आज एक अरब से अधिक आबादी प्रत्यक्ष गरीबी से जूझ रही है और ऐसे में भारत के भविष्य को संवारने का जिम्मा लेने वाला योजना आयोग 32 और 26 रुपए खर्च करने वालों को गरीब नहीं मानता.


अगर इस देश से गरीबी को हटाना है तो सबसे जरूरी है कि बड़े पैमाने पर गरीबों के बीच उनके अधिकारों की जागरुकता फैलाई जाए साथ ही राजनैतिक स्तर पर नैतिकता को मजबूत करना होगा जो उस गरीबी को देख सके जिसकी आग में छोटे बच्चों का भविष्य (जिन्हें देश के भावी भविष्य के रूप में देखा जाता है) तेज धूप में सड़कों पर भीख मांग कर कट रहा है.
 

अनाथ एवं जरूरतमंद बच्चो की मदद करे

कोई खाकर मरता है तो कोई बिना खाए

कैसी अजीब है यह दुनिया. यहां कोई बिना खाए भूख से मरता है तो कोई अधिक खाने से होने वाली बीमारी से मर जाता है. यहां गरीब हजारों कदम पैदल दो वक्त की रोटी कमाने के लिए चलता है तो वहीं अमीर अपने खाने को पचाने के लिए. रोटी ही इंसान की वह जरूरत है जिसके लिए वह जिंदगी भर अपना पसीना बहाता है लेकिन इस मेहनत के बाद भी बहुत कम लोगों को इस रोटी की जद्दोजहद से मुक्ति मिल पाती है. इनमें से कई जानें तो बिन रोटी के ही अपना दम तोड़ देती हैं.संसार में भोजन की कमी और भूख से प्रतिवर्ष करोड़ों जानें काल के गाल में समा जाती हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक सर्वेक्षण के अनुसार विकासशील देशों में प्रति पांच व्यक्ति में एक व्यक्ति कुपोषण का शिकार है. इनकी संख्या वर्तमान में लगभग 72.7 करोड़ है. 1.2 करोड़ बच्चों में लगभग 55 प्रतिशत कुपोषित बच्चे मृत्यु के मुंह में चले जाते हैं. भूख और कुपोषण से मरने वाले देशों की सूची के वैश्विक भूख सूचकांक में भारत को 88 देशों में 68वां स्थान मिला है.कुपोषण आज देश के लिए राष्ट्रीय शर्म है. भारत में कुपोषण की समस्या कुछ इलाकों में बहुत ज्यादा है. यही वजह है कि विश्व में कुपोषण से जितनी मौतें होती हैं, उनमें भारत का स्थान दूसरा है. वास्तव में कुपोषण बहुत सारे सामाजिक-राजनीतिक कारणों का परिणाम है. जब भूख और गरीबी राजनीतिक एजेंडा की प्राथमिकता में नहीं होती तो बड़ी तादाद में कुपोषण सतह पर उभरता है. भारत को ही देख लें, जहां कुपोषण गरीब और कम विकसित पड़ोसियों मसलन बांग्लादेश और नेपाल से भी अधिक है. यहां तक कि यह उप-सहारा अफ्रीकी देशों से भी अधिक है, क्योंकि भारत में कुपोषण का दर लगभग 55 प्रतिशत है, जबकि अफ्रीका में यह 27 प्रतिशत के आसपास है.
लेकिन क्या सिर्फ कृषि उत्पाद बढ़ा कर और खाद्यान्न को बढ़ा कर हम भूख से अपनी लड़ाई को सही दिशा दे सकते हैं. चाहे विश्व के किसी कोने में इस सवाल का जवाब हां हो पर भारत में इस सवाल का जवाब ना है और इस ना की वजह है खाद्यान्नों को रखने के लिए जगह की कमी. यूं तो भारत विश्व में खाद्यान्न उत्पादन में चीन के बाद दूसरे स्थान पर पिछले दशकों से बना हुआ है. लेकिन यह भी सच है कि यहां प्रतिवर्ष करोड़ों टन अनाज बर्बाद भी होता है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार लगभग 58,000 करोड़ रुपये का खाद्यान्न भंडारण आदि तकनीकी के अभाव में नष्ट हो जाता है. भूखी जनसंख्या इन खाद्यान्नों पर ताक लगाए बैठी रह जाती है. कुल उत्पादित खाद्य पदार्थो में केवल दो प्रतिशत ही संसाधित किया जा रहा है.

भारत में लाखों टन अनाज खुले में सड़ रहा है. यह सब ऐसे समय हो रहा है जब करोड़ों लोग भूखे पेट सो रहे हैं और छह साल से छोटे बच्चों में से 47 फीसदी कुपोषण के शिकार हैं. 
ऐसा नहीं है कि भारत में खाद्य भंडारण के लिए कोई कानून नहीं है. 1979 में खाद्यान्न बचाओ कार्यक्रम शुरू किया गया था. इसके तहत किसानों में जागरूकता पैदा करने और उन्हें सस्ते दामों पर भंडारण के लिए टंकियां उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया था. लेकिन इसके बावजूद आज भी लाखों टन अनाज बर्बाद होता है. तमाम लोग दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. इसी जद्दोजहद में गरीब दम तक तोड़ देते हैं, जबकि सरकार के पास अनाज रखने को जगह नहीं है.

ऐसा भी नहीं है कि सरकार ने भूख से लड़ने के लिए कारगर उपाय नहीं किए हैं. देश में आज खाद्य सुरक्षा व मानक अधिनियम 2006 के तहत खाद्य पदार्थो और शीतल पेय को सुरक्षित रखने के लिए विधेयक संसद से पारित हो चुका है, जिसके अंतर्गत राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, राष्ट्रीय बागवानी मिशन, नरेगा, मिड डे भोजन, काम के बदले अनाज, सार्वजानिक वितरण प्रणाली, सामाजिक सुरक्षा नेट, अंत्योदय अन्न योजना आदि कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, ताकि सभी देशवासियों की भूख मिटाने के लिए ही नहीं, बल्कि स्वतंत्र रूप से जीवनयापन के लिए रोजगार परक आय व पोषणयुक्त भोजन मिल सके. लेकिन कागजों पर बनने वाली यह योजनाएं जमीन पर कितनी अमल की जाती हैं इसका अंदाज आप भारत में भूख से मरने वाले लोगों की संख्या से लगा सकते हैं.
भूख की वैश्विक समस्या को तभी हल किया जा सकता है जब उत्पादन बढ़ाया जाए. साथ ही उससे जुड़े अन्य पहलुओं पर भी समान रूप से नजर रखी जाए. खाद्यान्न सुरक्षा तभी संभव है जब सभी लोगों को हर समय, पर्याप्त, सुरक्षित और पोषक तत्वों से युक्त खाद्यान्न मिले जो उनकी आहार संबंधी आवश्यकताओं को पूरा कर सके. साथ ही कुपोषण का रिश्ता गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, आदि से भी है. इसलिए कई मोर्चों पर एक साथ मजबूत इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करना होगा.

विश्व खाद्य दिवस


एक ओर हमारे और आपके घर में रोज सुबह रात का बचा हुआ खाना बासी समझकर फेंक दिया जाता है तो वहीं दूसरी ओर कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें एक वक्त का खाना तक नसीब नहीं होता और वह भूख से मर रहे हैं. कमोबेश हर विकसित और विकासशील देश की यही कहानी है. दुनिया में पैदा किए जाने वाले खाद्य पदार्थ में से करीब आधा हर साल बिना खाए सड़ जाता है. गरीब देशों में इनकी बड़ी मात्रा खेतों के नजदीक ही बर्बाद हो जाती है. विशेषज्ञों के अनुसार इस बर्बादी को आसानी से आधा किया जा सकता है. अगर ऐसा किया जा सके तो यह एक तरह से पैदावार में 15-25 फीसदी वृद्धि के बराबर होगी. अमीर देश भी अपने कुल खाद्यान्न उत्पादन का करीब आधा बर्बाद कर देते हैं लेकिन इनके तरीके जरा हटकर होते हैं.एक ओर दुनिया में हथियारों की होड़ चल रही है और अरबों रुपए खर्च हो रहे हैं तो दूसरी ओर आज भी 85 करोड़ 50 लाख ऐसे बदनसीब पुरुष, महिलाएं और बच्चे हैं जो भूखे पेट सोने को मजबूर हैं. संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में खाद्यान्न का इतना भंडार है जो प्रत्येक स्त्री, पुरुष और बच्चे का पेट भरने के लिए पर्याप्त है लेकिन इसके बावजूद आज 85 करोड़ 50 से अधिक ऐसे लोग हैं जो दीर्घकालिक भुखमरी और कुपोषण या अल्प पोषण की समस्या से जूझ रहे हैं.


रिपोर्ट में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि यदि 2015 तक हमें भूख से निपटना है और गरीबी से ग्रस्त लोगों की संख्या प्रथम सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य से आधी करनी है तो हमें अपने प्रयासों को दोगुनी गति से आगे बढाना होगा.


खाद्यान्न की कमी ने विश्व के सर्वोच्च संगठनों और सरकारों को भी सोचने पर विवश कर दिया है. भारत में हाल ही में "खाद्य सुरक्षा बिल" लाया गया है लेकिन इस बिल का पास होना या ना होना इसकी सफलता नहीं है. हम सब जानते हैं भारत में खाद्यान्न की कमी को खास मुद्दा नहीं है बल्कि सार्वजनिक आपूर्ति प्रणाली और खाद्यान्न भंडारण की समस्या असली समस्या है. भारत में लाखों टन अनाज खुले में सड़ रहा है. यह सब ऐसे समय हो रहा है जब करोड़ों लोग भूखे पेट सो रहे हैं और छह साल से छोटे बच्चों में से 47 फीसदी कुपोषण के शिकार हैं.ऐसा नहीं है कि भारत में खाद्य भंडारण के लिए कोई कानून नहीं है. 1979 में खाद्यान्न बचाओ कार्यक्रम शुरू किया गया था. इसके तहत किसानों में जागरूकता पैदा करने और उन्हें सस्ते दामों पर भंडारण के लिए टंकियां उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया था. लेकिन इसके बावजूद आज भी लाखों टन अनाज बर्बाद होता है.खाद्यान्न की इसी समस्या को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने विश्व खाद्य दिवस की घोषणा की थी. 16 अक्टूबर, 1945 को संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में विश्व खाद्य दिवस की शुरुआत हुई जो अब तक चली आ रही है. इसका मुख्य उद्देश्य दुनिया में भुखमरी खत्म करना है. आज भी विश्व में करोड़ों लोग भुखमरी के शिकार हैं. हमें विश्व से भुखमरी मिटाने के लिए अत्याधुनिक तरीके से खेती करनी होगी. इस साल खाद्य दिवस की थीम "खाद्य सामग्रियों की बढ़ती कीमतों को स्थिर" करना है.


बढ़ते पेट्रोल के दामों और जनसंख्या विस्फोट की वजह से आज खाद्य पदार्थों के भाव आसमान पर जा रहे हैं जिसे काबू करना किसी भी सरकार के बस में नहीं है. ऐसे में सही रणनीति और किसानों को प्रोत्साहन देने से ही हम खाद्यान्न की समस्या को दूर कर सकते हैं.


हमें समझना होगा कि भोजन का अधिकार आर्थिक,नैतिक और राजनीतिक रूप से ही अनिवार्य नहीं है बल्कि यह एक कानूनी दायित्व भी है.वर्तमान समय और परिस्थितियों में दुनिया के सभी देशों को सामुदायिक, राष्ट्रीय और वैश्विक स्तरों पर अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति और जनभावना को संगठित करना होगा.



 

कहीं मोटापा, कहीं भुखमरी का दंश

एक सर्वे के मुताबिक मेट्रो शहरों की 70 फीसदी आबादी मोटापे की शिकार है। मेट्रो में रहने वाला मध्यम और उच्च वर्ग पढ़ा लिखा, जानकार है। हम सब जानते है कि मोटापा डायबिटीज, हृदय रोग, कैंसर, कोलेस्ट्राल, थायराइड समेत 50 से ज्यादा बीमारियों का वाहक है फिर भी हम इसे क्यों नहीं रोक पाते। यह भी सच है कि भारत की साठ फीसदी से ज्यादा आबादी युवा और देश का भविष्य इन्हींकंधों पर है। अगर भावी पीढ़ी बीमारियों के भंवर में जकड़ जाएगी तो हम भी वही रोना रोते नजर आएंगे जो आज अमेरिका और यूरोपीय देश रो रहे हैं। मोटापा और उससे जनित डायबिटीज, कैंसर जैसी बीमारियों की वजह से वहां सामाजिक सुरक्षा का खर्च इतना ज्यादा बढ़ गया है कि सरकारें लाचार नजर आ रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तमाम आंकड़ो के जरिए चेतावनी दी है कि यही हाल रहा तो भारत अगले 15 से 20 वर्षों में डायबिटीज, मोटापा और कैंसर के मरीजों की राजधानी में तब्दील हो जाएगा। आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर छह में से एक महिला और हर पांच में से एक पुरुष मोटापे का शिकार है। भारत में मोटापे के शिकार लोगों की संख्या सात करोड़ पार कर गई है। सबसे खतरनाक बात है कि 14-18 साल के 17 फीसदी बच्चे मोटापे से पीडि़त हैं। एक अध्ययन के मुताबिक बड़े शहरों में 21 से 30 फीसदी तक स्कूली बच्चों का वजन जरूरत से काफी ज्यादा है।


विशेषज्ञों के मुताबिक किशोरावस्था में ही मोटापे के शिकार बच्चे युवा होने तक कई गंभीर बीमारियों का शिकार हो जाते हैं। जिससे उनकी कार्यक्षमता पर बुरा असर पड़ता है। यही वजह है कि आजकल 30 साल से कम उम्र के लोगों में भी हृदय रोग, डायबिटीज, कैंसर जैसी बीमारियां तेजी से उभर रही हैं। यहींनहीं शहरों में रहने वाले हर पांच में एक शख्स डायबिटीज या हाइपरटेंशन का शिकार है। सभी प्रकार के संसाधनों से लैस होने के बावजूद शहरी मध्यवर्ग विलासिता और गलत खान-पान की आदतों से छुटकारा पाने में असफल रहा है। सवाल उठता है कि जो देश भुखमरी, कुपोषण, बाल मृत्यु दर, प्रसवकाल में महिलाओं की मौत की ऊंची दर से परेशान हो, क्या उसे उच्च वर्ग की विलासिता और भोगवादी संस्कृति से उपजी इन बीमारियों का बोझ अपने कंधों पर उठाना चाहिए। दरअसल इन बीमारियों से लड़ने की हमारी नीति नकारात्मक और संकीर्ण है। विडंबना है कि सरकारें यह क्यों नहीं सोचतींकि कानून या योजना बनाने या उसके लिए बजट घोषित करने से सामाजिक समस्याओं का निदान नहीं हो सकता। इसमें सरकार, समाज और प्रभावितों को शामिल करना जरूरी है। मोटापा या जानलेवा बीमारियों के इलाज के लिए अस्पताल और अन्य जरूरी संसाधन मुहैया कराना जितना जरूरी है उतना ही आवश्यक है कि इन बीमारियों का प्रकोप बढ़ने से रोका जाए।या यूं कहें कि मोटापे से लड़ने के लिए हमें वैसे ही दृष्टिकोण की जरूरत आ पड़ी है जैसी कि हम तंबाकूयुक्त पदार्थो को लेकर करते हैं।


मोटापे को लेकर सरकार की नीति बेहद संकीर्ण और अव्यावहारिक है। मसलन निजी और सरकारी स्कूलों में फास्टफूड, उच्च कैलोरी युक्त पदार्थ धड़ल्ले से बिक रहे हैं। स्कूली दिनचर्या में खेलकूद और शारीरिक शिक्षा किताबी पन्नों में सिमट कर रह गई है। मगर सरकारें असहाय हैं। बाजार बच्चों, युवाओं और बूढ़ों को भ्रामक विज्ञापनों से ललचा रहा है मगर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय खामोश है। स्वस्थ रहने और बीमारियों से बचने की बातें पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं हैं। निजी-सरकारी क्षेत्र के स्कूलों, कार्यालयों और प्रतिष्ठानों में लोगों के खानपान, कार्यशैली और स्थानीय पर्यावरण को लेकर सरकार और निजी क्षेत्र मिलकर सर्वे और जागरूकता कार्यक्रम क्यों नहींचलाते। स्थानीय पर्यावरण मसलन वहां की हवा, पानी, खाद्य वस्तुएं लोगों के स्वास्थ्य पर क्या असर डालती हैं, इस पर शोध और विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने की जहमत सरकार क्यों नहीं उठाया जाता। नौकरशाही तांगे के घोड़ों की तरह काम कर रही है जिसकी आंखों पर पट्टी बंधी है और राजनीतिक नेतृत्व जितनी लगाम खींचता है बस वह उतने डग भरती है। बदकिस्मती से राजनेताओं का मकसद भी केवल गाड़ी खींचने तक सीमित रह गया है। अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य विशेषज्ञ चेतावनी दे चुके हैं कि भारत और अन्य एशियाई देशों का पर्यावरण, लोगों की शारीरिक स्थिति एवं कार्यप्रणाली ऐसी है कि यहां मोटापा और उससे जनित जानलेवा बीमारियों यानी कैंसर, डायबिटीज, हृदयरोग के फैलने का खतरा ज्यादा है। मोटापा से होने वाली टाइप टू डायबिटीज से करीब सात करोड़ भारतीय परेशान हैं। इसलिए बच्चों, युवाओं के आसपास ऐसा माहौल विकसित करना जरूरी है कि वे ऐसे खाद्य एवं पेय पदार्थों से दूर रहें कि वे मोटापा और अन्य बीमारियों का शिकार हों। हमारे नौनिहाल और युवा पीढ़ी अगर बीमारियों से घिरी रहेगी तो कार्यक्षमता तो घटेगी ही, देश के मानव संसाधन पर भी प्रभाव पड़ेगा।


सरकार अगर स्वास्थ्य क्षेत्र का बड़ा हिस्सा विलासिता से पैदा होने वाली बीमारियों पर खर्च करेगी तो भुखमरी, कुपोषण, बाल मृत्यु दर, प्रसवोपरांत महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए नियोजित बजट पर असर पड़ेगा। ऐसे में मोटापा और उससे होने वाली बीमारियों से लड़ने के लिए सकारात्मक और प्रोएक्टिव कदम उठाने होंगे। केंद्र और राज्य स्तर पर सरकार और निजी क्षेत्र के स्कूलों, अस्पतालों, प्रतिष्ठानों और गैर सरकारी संगठनों को इस समग्र नीति का हिस्सेदार बनाना होगा। और हां प्रभावित होने वाले वर्ग यानी बच्चों और युवाओं को भी इस अभियान का भागीदार बनाना होगा, तभी कोई नीति सफल हो पाएगी। नकारात्मक उपायों के तौर पर फास्ट फूड और उच्च कैलोरी युक्त पेय पदार्थो की बिक्री को हतोत्साहित करना होगा। डिब्बाबंद खाद्य और पेय पदार्थो पर ऐसे मानक तय करने होंगे जिससे स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव न पड़े। ऐसे जंक फूड और हाइड्रेटेड ड्रिंक की स्कूली परिसर के सौ मीटर के दायरे में बिक्री भी प्रतिबंधित कर देनी चाहिए। स्कूल में आयोजित स्वास्थ्य जागरूकता कार्यक्रमों में बच्चों के साथ उनके अभिभावकों की भी हिस्सेदारी होनी चाहिए क्योंकि वे ही अपनी संतानों के खानपान और जीवनशैली के लिए जिम्मेदार होते हैं। इन खाद्य पदार्थो के पैकेट पर भी सामान्य चेतावनी लिखी जानी चाहिए, जिसमें इनके सेवन से होने वाले दुष्प्रभावों का जिक्र हो ताकि दुकानदार अपने ग्राहकों को बहका न सकें और इसका नुकसान ज्यादा नहो सके। हमें बच्चों और युवाओं को यह समझाना होगा कि ये फास्टफूड और कैलोरीयुक्त पेय पदार्थ पश्चिमी वातावरण और स्थितियों के तो अनुकूल हैं मगर हमारे पर्यावरण के लिहाज से यह साइलेंट किलर की तरह हैं।

Tuesday, October 16, 2012

subhkamana


SAJAJJM (अनुसूचित (समग्र जाति अनुसूचित जनजाति महासंघ) की तरफ से जय माता दी, लाल रंग की चुनरी से साजा मां का दरबार, हर्षित हुआ आदमी, पुलकित हुआ संसार, नन्हे - नन्हे कदमो से, मां आये आपके द्वार ....मुबारक हो आपको नवरात्रि का त्यौहार ..जय माता दी. मां की ज्योति से नूर मिलता है, सबके दिलो को सुरूर मिलता है, जो भी जाता है मां के द्वार, कुछ ना कुछ जरुर मिलता है. 'शुभ नवरात्रि "

Monday, October 15, 2012

भू जल रिचार्ज


नलकूपों द्वारा रिचार्जिंग: छत से एकत्र पानी को स्टोरेज टैंक तक पहुंचाया जाता है। स्टोरेज टैंक का फिल्टर किया हुआ पानी नलकूपों तक पहुंचाकर गहराई में स्थित जलवाही स्तर को रिचार्ज किया जाता है। इस्तेमाल न किए जाने वाले नलकूप से भी रिचार्ज किया जा सकता है।


गड्ढे खोदकर: ईंटों के बने ये किसी भी आकार के गड्ढे होते हैं। इनकी दीवारों में थोड़ी थोड़ी दूरी पर सुराख बनाए जाते हैं। गड्ढे का मुंह पक्की फर्श से बंद कर दिया जाता है। इसकी तलहटी में फिल्टर करने वाली वस्तुएं डाल दी जाती हैं।


सोक वेज या रिचार्ज साफ्ट्स: इनका इस्तेमाल वहां किया जाता है जहां की मिट्टी जलोढ़ होती है। इसमें 30 सेमी ब्यास वाले 10 से 15 मीटर गहरे छेद बनाए जाते हैं। इसके प्रवेश द्वार पर जल एकत्र होने के लिए एक बड़ा आयताकार गड्ढा बनाया जाता है। इसका मुंह पक्की फर्श से बंद कर दिया जाता है। इस गड्ढे में बजरी, रोड़ी, बालू इत्यादि डाले जाते हैं।


खोदे गए कुओं द्वारा रिचार्जिंग: छत के पानी को फिल्ट्रेशन

बेड से गुजारने के बाद इन कुंओं में पहुंचाया जाता है। इस

तरीके में रिचार्ज गति को बनाए रखने के लिए कुएं की लगातार सफाई करनी होती है।


खाई बनाकर: जिस क्षेत्र में जमीन की ऊपरी पर्त कठोर और छिछली होती है, वहां इसका इस्तेमाल किया जाता है। जमीन पर खाई खोदकर उसमें बजरी, ईंट के टुकड़े आदि भर दिया जाता है। यह तरीका छोटे मकानों, खेल के मैदानों, पार्कों इत्यादि के लिए उपयुक्त होता है।


रिसाव टैंक: ये कृत्रिम रूप से सतह पर निर्मित जल निकाय होते हैं। बारिश के पानी को यहां जमा किया जाता है। इसमें संचित जल रिसकर धरती के भीतर जाता है। इससे भू जल स्तर ऊपर उठता है। संग्र्रहित जल का सीधे बागवानी इत्यादि कार्यों में इस्तेमाल किया जा सकता है। रिसाव टैंकों को बगीचों, खुले स्थानों और सड़क किनारे हरित पट्टी क्षेत्र में बनाया जाना चाहिए.


पानी की खातिर…

रेनवाटर हार्वेस्टिंग भारत की बहुत पुरानी परंपरा है। हमारे पुरखे इसी प्रणाली द्वारा अनमोल जल संसाधन का मांग और पूर्ति में संतुलन कायम रखते थे। 

 
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जल संचय के साथ जरूरी है जल स्रोतों का रखरखाव
 

जल संचय के साथ जरूरी है जल स्रोतों का रखरखाव

हमारे शहरों में पानी की मांग तेजी से बढ़ रही हैं। तेजी से बढ़ती हुई शहरी जनसंख्या का गला तर करने के लिए हमारी नगरपालिकाएं आदतन कई किमी दूर अपनी सीमा से परे जाकर पानी खींचने का प्रयास कर रही हैं। लेकिन हमारी समझ में यह नहीं आता है कि आखिर सैकड़ों किमी दूर से पानी खींचने का यह पागलपन क्यों किया जा रहा है? इसका प्रमुख कारण हमारे शहरी प्लानर, इंजीनियर, बिल्डर और आर्किटेक्ट हैं जिन्हें कभी नहीं बताया जाता कि कैसे सुलभ पानी को पकड़ा जाए। उन्हें अपने शहर के जल निकायों की अहमियत को समझना चाहिए। इसकी जगह वे लोग जल निकायों की बेशकीमती जमीन को देखते हैं, जिससे जल स्नोत या तो कूड़े-करकट या फिर मलवे में दबकर खत्म हो जाते हैं।


देश के सभी शहर कभी अपने जल स्नोतों के लिए जाने जाते थे। टैंकों, झीलों, बावली और वर्षा जल को संचित करने वाली इन जल संरचनाओं से पानी को लेकर उस शहर के आचार विचार और व्यवहार का पता लगता था। लेकिन आज हम धरती के जलवाही स्तर को चोट पहुंचा रहे हैं। किसी को पता नहीं है कि हम कितनी मात्रा में भू जल का दोहन कर रहे हैं। यह सभी को मालूम होना चाहिए कि भू जल संसाधन एक बैंक की तरह होता है। जितना हम निकालते हैं उतना उसमें डालना (रिचार्ज) भी पड़ता है। इसलिए हमें पानी की प्रत्येक बूंद का हिसाब-किताब रखना होगा।


1980 के शुरुआती वर्षों से सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट रेनवाटर हार्वेस्टिंग संकल्पना की तरफदारी कर रहा है। इसे एक अभियान का रूप देने से ही लोगों और नीति-नियंताओं की तरफ इसका ध्यान गया। देश के कई शहरों ने नगरपालिका कानूनों में बदलाव कर रेनवाटर हार्वेस्टिंग को आवश्यक कर दिया। हालांकि अभी चेन्नई ही एकमात्र ऐसा शहर है जिसने रेनवाटर हार्वेस्टिंग प्रणाली को कारगर रूप से लागू किया है।


2003 में तमिलनाडु ने एक अध्यादेश पारित करके शहर के सभी भवनों के लिए इसे जरूरी बना दिया। यह कानून ठीक उस समय बना जब चेन्नई शहर भयावह जल संकट के दौर से गुजर रहा था। सूखे के हालात और सार्वजनिक एजेंसियों से दूर हुए पानी ने लोगों को उनके घर के पीछे कुओं में रेनवाटर संचित करने की अहमियत समझ में आई।


यदि किसी शहर की जलापूर्ति के लिए रेनवाटर हार्वेस्टिंग मुख्य विकल्प हो, तो यह केवल मकानों के छतों के पानी को ही संचित करने तक ही नहीं सीमित होना चाहिए। वहां के झीलों और तालाबों कासंरक्षण भी आवश्यक रूप से किया जाना चाहिए। वर्तमान में इन संरचनाओं को बिल्डर्स और प्रदूषण से समान रूप में खतरा है। बिल्डर्स अवैध तरीके से इन पर कब्जे का मंसूबा पाले रहते हैं वहीं प्रदूषण इनकी मंशा को सफल बनाने की भूमिका अदा करता है।


इस मामले में सभी को रास्ता दिखाने वाला चेन्नई शहर समुद्र से महंगे पानी के फेर में कैद है। अब यह वर्षा जल की कीमत नहीं समझना चाहता है। अन्य कई शहरों की तर्ज पर यह भी सैकड़ों किमी दूर से पानी लाकर अपना गला तर करना चाह रहा है। भविष्य में ऐसी योजना शहर और देश के लिए महंगी साबित होगी।

 
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दृढ़ इच्छाशक्ति से ही निकलेगा समाधान
घोर जल संकट चिंता का विषय है। आखिर करें तो क्या करें। वर्षा जल संचय का मतलब बरसात के पानी को एकत्र करके जमीन में वापस ले जाया जाए। 28 जुलाई 2001 को दिल्ली के लिए तपस की याचिका पर अदालत ने 100 वर्गमीटर प्लॉट पर रेनवाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम (आरडब्ल्यूएच) अनिवार्य कर दिया। उसके बाद फ्लाईओवर और सड़कों पर 2005 में इस प्रणाली को लगाना जरूरी बनाया गया। लेकिन हकीकत में कोई सामाजिक संस्था इसको लागू करने के लिए खुद को जिम्मेदार नहीं मानती है।

सीजीडब्ल्यूए को नोडल एजेंसी बनाया गया था लेकिन उनके पास कर्मचारी और इच्छाशक्ति में कमी है। इस संस्था ने अधिसूचना जारी करने और कुछ आरडब्ल्यूएच के डिजाइन देने के अलावा कुछ नहीं किया है। एमसीडी, एनडीएमसी के पास इस बारे में तकनीकी ज्ञान नहीं है। दिल्ली जलबोर्ड में इच्छाशक्ति की कमी है। वे सीजीडब्ल्यूए को दोष देकर अपनी खानापूर्ति करते हैं।

हमारे पूर्वजों ने बावड़ियां बनवाई थी। तालाब बनवाए थे। जिन्हें कुदरती रूप से आरडब्ल्यूएच के लिए इस्तेमाल किया जाता था। सरकार चाहे तो इनसे सीख ले सकती है। आज 12 साल बाद भी सरकार के पास रेनवाटर हार्वेस्टिंग को लेकर कोई ठोस आंकड़ा नहीं उपलब्ध है। सरकार को नहीं पता है कि कितनी जगह ऐसी प्रणाली काम कर रही है। केवल कुछ आर्थिक सहायता देने से ये कहानी आगे नहीं बढ़ेगी। इच्छाशक्ति होगी तो रास्ता भी आगे निकल आएगा। किसी एक संस्था को जिम्मेदार बनाना पड़ेगा और कानून को सख्त करने की जरूरत होगी। एक ऐसी एजेंसी अनिवार्य रूप से बनाई जानी चाहिए जहां से जनता रेनवाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम से जुड़ी सभी जानकारियां ले सके। जागरूकता ही सफलता हासिल होगी।


 

Sunday, October 14, 2012

आरक्षण में कितनी ईमानदारी?


  
 अधिकांश पार्टियां और नेता पदोन्नति में आरक्षण के मुद्दे पर मानसून सत्र के अंतिम क्षणों में संसद में ट्वंटी-20 क्रिकेट खेलने जैसी मुद्रा में दिखे। सांसद चिल्लाते रहे, कागज फाड़े गए और स्थिति यहां तक पहुंच गई कि इस मुद्दे पर अपने क्षेत्र में अपने वोट बैंक को प्रभावित करने के लिए शारीरिक मुठभेड़ को भी अंजाम दिया गया। एक अपेक्षित आरोप लगा कि यह हंगामा कोल ब्लॉक आवंटन पर उठे बड़े विवाद से निकलने का एक राजनीतिक उपक्रम था।

इस हंगामे का किसी पार्टी ने विरोध नहीं किया। यह बात भी हुई कि संसद में अकसर शोर मचाने वाली समाजवादी पार्टी ने अपने मतदाता आधार के मद्देनजर अन्य पिछड़ा वर्ग को भी पदोन्नति में आरक्षण का लाभ दिलवाने के लिए ही संशोधन विधेयक का विरोध किया है।


इस मामले में एक सच्चाई यह है कि भारत सरकार के 93 सचिवों में से एक भी दलित नहीं है। इस संख्या को दूसरे आंकड़ों के बरक्स रखकर देखें। आंकड़े बताते हैं कि कार्यरत नौकरशाहों में से हर पांच में से एक नौकरशाह दलित समुदाय से है, जो आरक्षण व्यवस्था का परिणाम है।

एक रूढिवादी तर्क के बावजूद कोई भी इस बात को तार्किक ढंग से सही नहीं ठहरा सकता कि क्यों किसी भी दलित को इस लायक नहीं समझा गया कि उसे प्रोन्नत करके नौकरशाही के उच्च पदों पर बिठाया जा सके। स्पष्ट है, व्यवस्था में भेदभाव अभी कायम है, जिसे आरक्षण से या किसी अन्य तरीके से खत्म किए जाने की जरूरत है।


आरक्षण से जुड़ा दूसरा मुद्दा है, भागीदारी की कीमत पर योग्यता की हानि। जिस संविधान की प्रस्तावना में ही अवसर की समानता का उल्लेख है, उसके तहत भागीदारी ही अपने आप में व्यवस्था में योग्यता के होने का प्रमाण है। दूसरी ओर, कार्यपालिका के कामकाज का गिरता स्तर, नैतिकता के मोर्चे पर खराब प्रदर्शन (ईमानदार देशों की सूची में हमारी रैंकिंग 95 है, हम इस मामले में चीन से बहुत पीछे हैं), जाहिर है, योग्यता के पैमाने पर भारतीय व्यवस्था अपना बचाव नहीं कर सकती।


हालांकि इस विधेयक के केंद्र में दो और मुद्दे भी हैं। पहला मुद्दा इसकी प्रक्रिया से संबद्ध है। यह विधेयक सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ है, जोकि पदोन्नति में आरक्षण के मसले पर हमेशा से ही संसद से असहमत रहा है। हमारा सुप्रीम कोर्ट संविधान का रक्षक और व्याख्याकार है, उसके मत या विचार को पलटने की दिशा में बहुत सावधानी बरतनी चाहिए।


एक और मुद्दा, आरक्षण के अपने विविध आयाम हैं। आरक्षण को प्रारंभ में एक नियत समय के लिए लागू किया गया था और इसे अभी भी खत्म नहीं किया जा सका है। प्रावधान तो यह है कि इसके प्रभावों और इससे लाभान्वित होने वालों के सम्बंध में जानकारी को समय-समय पर दुरूस्त करना और लगातार संशोधित करना चाहिए, लेकिन ऎसा नहीं हो रहा है। काफी समय से हम देख रहे हैं कि दलितों और अन्य पिछड़ा वर्ग के बीच कुछ नए शब्दों (जैसे अति पिछड़े, महा दलित, पिछड़ी महिला) का सूत्रपात हुआ है। दलितों और गैर-दलितों के बीच खाई बढ़ती ही जा रही है। अधिकांश मामलों में आरक्षण का फल पुराने लोगों ने ही लगातार चखा है।

आईआईएम और आईआईटी (आईआईएम-अहमदाबाद भी - जिसका मैं भी एक हिस्सा रहा हूं) में प्रवेश लेने वाले आरक्षित श्रेणी के छात्रों की प्रोफाइल देखें, तो आप पाएंगे कि उनमें से अधिकांश छात्र अच्छे परिवारों से ताल्लुक रखते हैं, उनमें से अधिकांश एक खास जाति से आते हैं, जो महानगरों में रहती है या महानगरों से संबद्ध है।


हमें यह मालूम करना चाहिए कि आरक्षण क्यों अपने लक्ष्य को पूरा करने में नाकाम रहा। आरक्षण की वजह से जो क्रांति होने वाली थी, उससेे सुदूर प्रदेशों, गांवों और पिछड़ों में आर्थिक रूप से दरिद्र लोगों के बीच समानता क्यों नहीं आ सकी। यदि आरक्षण समानता लाने की एक अनिवार्य औषधि है, तो हमें दलितों और अन्य पिछड़े वर्ग के उन लोगों को ध्यान में रखना होगा, जिन्हें वास्तव में इसकी जरूरत है।


हमें आरक्षण से जुड़े एक पाखंड पर भी विचार करना चाहिए। ज्यादातर राजनीतिक पार्टियां पदोन्नति में आरक्षण सम्बंधी विधेयक को पारित करने के लिए सहमत हो गई हैं, लेकिन उन्हें अपने दलीय आधार में यह भी देखना चाहिए कि उन्होंने दल के अंदर कितने दलितों को भागीदार बनाया है। दलों के निर्णायक दफ्तरों में बहुत कम ऎसे पद हैं, जिनपर दलित विराजमान हैं। इस सच्चाई को किनारे कर दीजिए कि हर पांचवां सांसद दलित है, लेकिन सच है कि कोई पार्टी किसी दलित को प्रधानमंत्री बनवाने में कामयाब नहीं हुई है।


देश में 13 प्रधानमंत्री हुए हैं, जिनमें से 7 प्रधानमंत्री कांग्रेस ने दिए हैं। जब पार्टियां अपनी कोर कमेटियां बनाती हैं, तो उनके चयन मापदंड में जाति का पिछड़ापन कहीं नहीं दिखता है। वरिष्ठता, पार्टी को योगदान, मतदाताओं के बीच व्यक्तिगत प्रभाव ही ज्यादा मायने रखता है। ऎसा उस संसदीय व्यवस्था में हो रहा है, जिसमें छह दशक से जाति के आधार पर सीटें आरक्षित हैं। लोकतंत्र तभी मजबूत होगा, जब राजनीतिक पार्टियां दलितों और पिछड़ी जातियों को उच्च स्तर पर पार्टी के नेतृत्व में ज्यादा जगह देंगी।


अंतत: जो राजनीतिक दबाव बन रहा है, उसके तहत यह विधेयक 2014 में होने वाले लोकसभा चुनावों के आस-पास पारित हो जाएगा और लागू भी हो जाएगा। हमें इस बात पर बल देना होगा कि इस आरक्षण को शुद्ध राजनीतिक रणनीति के तहत नहीं, बल्कि वैज्ञानिक सोच और सामाजिक समझ के साथ लागू किया जाए। इसके प्रभाव की समीक्षा के पैमाने तय करने पड़ेंगे, अच्छे और बुरे प्रभावों की निगरानी करनी पड़ेगी और प्रभाव सम्बंधी रिपोर्टो को सार्वजनिक करना होगा। हर पांच साल में यह देखना पड़ेगा कि समाज के कौन-से हिस्से लाभान्वित हो रहे हैं।

शायद, आरक्षण प्रतिनिधित्व की अल्पकालिक खाइयों को पाटने में ही सफल हो सकेगा। जिस देश में 25,000 से ज्यादा जातियां, उप-जातियां हैं, जिस देश की मुद्रा पर ही 15 भाषाएं मुद्रित हैं, उस देश मे विभाजन और गुट-वाद बड़ी चुनौती बना रहेगा, इस पक्ष पर ध्यान देने की जरूरत है।
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पदोन्नति में आरक्षण पर अधिकतर दल सहमत
सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को पदोन्नति में आरक्षण को लेकर संविधान संशोधन के मुद्दे पर लगभग सभी दलों में सहमति बन गई है.
उल्लेखनीय है कि नौकरियों में पदोन्नति का मसला काफी पेचीदा रहा है और अप्रैल के महीने में सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार के इस फैसले को खारिज कर दिया था जिसमें राज्य सरकार ने पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को पदोन्नति में आरक्षण देने की घोषणा की थी.
उत्तर प्रदेश सरकार ने यह घोषणा पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के शासनकाल में की थी.
इसी कारण अब सरकार इस मुद्दे पर संविधान में संसोधन लाने की कोशिश कर रही है जिसके लिए मंगलवार को सर्वदलीय बैठक आयोजित की गई थी.
प्रमुख विपक्षी दल बीजेपी का कहना है कि वो कमजोर तबके के लोगों को ताकत दिलाने के पक्ष में है लेकिन उन्होंने कहा कि सरकार को संवैधानिक और क़ानूनी पक्षों को ध्यान में रखना

समाजवादी पार्टी को आपत्ति

सरकार को समर्थन दे रहे दल समाजवादी पार्टी ने हालांकि पदोन्नति में आरक्षण को लेकर आपत्ति जताई थी.
समाजवादी पार्टी का कहना है कि अगर एससी और एसटी को आरक्षण मिला तो इससे ओबीसी समुदाय को काफी नुकसान हो सकता है.
ऐसा माना जाता है कि समाजवादी पार्टी का एक बड़ा वोट बैंक ओबीसी समुदाय से आता है.
पदोन्नति में आरक्षण के मुद्दे पर संविधान संशोधन को लेकर वाम दलों ने भी सरकार का समर्थन किया है लेकिन कहा है कि जो भी संसोधन हो वो संवैधानिक रुप से आगे चलाने लायक भी होना चाहिए.
अभी ये साफ नहीं है कि सरकार मानसून सत्र में ही ये संसोधन लाएंगे या इसके लिए अगले सत्र का इंतजा़र किया जाएगा.
प्रधानमंत्री का कहना था कि सभी दलों ने बहुत अच्छे सुझाव दिए हैं और कोशिश हो रही कि वैधानिक रुप से ऐसा संशोधन लाया जाए तो लंबे समय तक चल सके.
नौकरियों में पदोन्नति का मामला काफी विवादास्पद रहा है और इसको लेकर काफी राजनीति होती रही है. पदोन्नति ही नहीं बल्कि कई समूह पूरी आरक्षण व्यवस्था का भी विरोध करते रहे हैं लेकिन कोई भी राजनीतिक दल खुल कर इसका विरोध नहीं कर रहा है.
भले ही अभी राजनीतिक पार्टियां संशोधन पर राज़ी दिख रही हैं लेकिन ये गौरतलब होगा कि आने वाले दिनों में जब संशोधन संसद में पेश होता है तब उस पर राजनीतिक दल क्या रुख अपनाते हैं.

Friday, October 12, 2012

हकीकत

कानपुर-इलाहाबाद मार्ग पर स्थित एक स्थान खागा. नरेश राम का क़त्ल दीना नाथ यादव ने इसलिए करवा दिया क्योकि उसकी जीप दीना नाथ यादव के बेटे की शादी में नहीं गयी थी. (3 जून 2012 दैनिक जागरण)

मेरठ के नेगी सराय में बाबू राम के खेत को राम सेवक यादव ने जबरदस्ती हड़प कर वहां पर अपना बैठका एवं गोशाला बनवा लिया. विरोध करने पर बाबूराम के बड़े बेटे प्रकाश को काट कर नहर में फेंक दिया गया. थाने में रिपोर्ट लिखवाने गए बाबूराम को थानेदार ने मार कर भगा दिया. तथा नसीहत दी गयी क़ि वह गाँव छोड़ कर चला जाय. नहीं तो बाकी लोगो की भी यही दशा होगी. बाबूराम अपने परिवार के साथ कही अन्यत्र चला गया. (दिनांक 13 जुलाई 2012 , अमर उजाला)

बनारस के रोहनिया में रामरती को नन्हकू यादव सिर्फ इस लिये मरवा दिया क़ि उसने उन्हें अपनी गाय नहीं दी. उसे मरवाने के बाद श्री नन्हकू जी ने उस गाय को अपने दरवाजे पर बंधवा लिया. थानेदार के विरोध करने पर उसे सस्पेंड कर दिया गया. (दिनांक 29 जुलाई 2012 अमर उजाला)

बलिया के संदवापुर में श्री तिलक धरी यादव, श्री किशुन यादव तथा श्री पारस यादव ने वहां के लेखपाल हंसनाथ यादव, क़ानून गो श्री दूध नाथ यादव के साथ मिल कर एक असहाय स्त्री की ज़मीन की पैमायिस गलत तरीके से कराकर उसे हड़प लिया गया. जब वह थानेदार से शिकायत करने पहुँची तो संयोग से एक सिपाही ने उसे पहले ही आगाह कर दिया क़ि थाने पर मत जाना. अन्यथा या तो तुम्हें बेइज्ज़त किया जाएगा. या फिर मरवा दिया जाएगा. वह असहाय स्त्री अपने मानसिक रूप से विक्षिप्त भाई को लेकर कही चली गयी. (प्रत्यक्ष)

उसी  गाँव के निवासी श्री गोरख यादव एवं श्री परम हंश यादव ने मिल कर एक और अबला को उसके दरवाजे की ज़मीन हड़प कर उस पर सड़क बनवा दिया. जब उसने विरोध किया तो उसे मारने की धमकी दी गयी. उस स्त्री ने डर कर अपने बच्चो के साथ गाँव ही छोड़ दिया. (प्रत्यक्ष)

उपरोक्त गाँव से सटे एक मुहल्ला ज़मीन भांटी के निवासी श्री मोहन यादव, धीरेन्द्र यादव एवं कृष्ण यादव ने मिलकर किशुन राजभर के बेटे को इतनी मार मारा क़ि अब वह शायद कभी कोई काम नहीं कर पायेगा. कारण यह था क़ि उसने उनके यहाँ बिना मज़दूरी लिये काम करने से इनकार कर दिया था. (प्रत्यक्ष)

गोरखपुर के कूडाघाट निवासी श्री देवनाथ यादव ने मुरली प्रसाद मौर्या को इसलिए मरवा दिया क़ि उसने अपना ज़मीन का प्लाट उन्हें नहीं बेच दिया. तथा खुद ही अपना घर बनवा लिया. उसके बाद उसकी पत्नी को थाने में जबरदस्ती बुलाकर उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया. और बाद में उसे भी मरवा दिया गया. (22 सितम्बर 2012 , दैनिक जागरण)

संत रविदास नगर के भूलन राम एवं उसकी पत्नी को इस लिये जला दिया गया क़ि उसने राम जतन यादव निवासी मंझन पुर को अपना सरकारी पट्टे वाली ज़मीन नहीं दिया. और आज उस ज़मीन पर श्री यादव जी का लबे सड़क सरकारी शराब की दूकान खुली हुई है. (23 सितम्बर 2012 दैनिक जागरण)
 

बलात्कार- दलितों को नीचा दिखाने का औजार

हरियाणा के सच्चा खेड़ा गाँव पहुँचकर काँग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने बलात्कार की शिकार हुई दलित युवती के परिवार वालों से मुलाकात करके काँग्रेस के आलोचकों का मुँह बंद करने की कोशिश की है.

इस युवती ने बलात्कार के बाद खुद को आग लगाकर आत्महत्या कर ली थी.

हरियाणा में काँग्रेस की सरकार है और पिछले एक महीने में वहाँ बलात्कार के 11 मामले सामने आए हैं. इनमें से ज़्यादातर मामलों में दलित महिलाओं को शिकार बनाया गया.

सोनिया गाँधी ने पत्रकारों से सवालों के जवाब में कहा, ''ये सच है कि बलात्कार की घटनाएं बढ़ी हैं लेकिन ऐसा सिर्फ हरियाणा में नहीं देश के सभी राज्यों में हो रहा हैं.'

इसे हरियाणा के काँग्रेसी मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा के बचाव के तौर पर देखा जा रहा है.

पर दलित महिलाओं पर अत्याचार की खबर सिर्फ हरियाणा तक ही सीमित नहीं है. बिहार के गया ज़िले में एक दलित महिला को सोमवार को जिंदा जला दिए जाने के मामले में पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज की है.

 

ख़ास तौर पर दलित महिलाओं के खिलाफ लगातार बढ़ रहे अपराधों की क्या वजह है विश्लेषकों का मानना है कि इस चलन का संबंध दरअसल दलित तबके की तरक्की से है बढ़ती सामाजिक हैसियत "इन लड़कियों को नीचा दिखाने के लिए, उनके अधिकारों को कुचलने के लिए उन्हें शिकार बनाया जा रहा है. बलात्कार या इज्जत लूटना एक तरीके है उन्हें नीचा दिखाने का

 दलितों में शिक्षा बढ़ रही है, जिसके कारण वो अधिकारों और बराबरी की मांग करने लगे हैं दलित वे परंपरागत ढांचे तो चुनौती देने लगे हैं, जो कुछ ऊंची जाति के लोगों को रास नहीं रहा है.

 एक समय था जब दलित वो हर काम करते थे जो उन्हें कहा जाता था चाहे वो कितना भी घटिया हो. लेकिन अब वो इनकार करने लगे हैं जो परंपरागत सोच वाले लोगों को कबूल नहीं है.''आने वाले दिनों में ऐसे मामले शायद और देखने को मिलें. इसके बावजूद उन्हें लगता है कि, ''कुछ सांत्वना की बात ये है कि यह एक परिवर्तन का दौर है जिसके बाद आखिरकार ऊंची जाति के लोगों को स्वीकार करना ही होगा कि दलित भी बराबर हैं और उनका शोषण अब नहीं किया जा सकता.''

सोनिया गांधी ने जींद का दौरा किया जहां गैंगरेप के बाद एक दलित महिला ने आत्मदाह किया था.

दलित महिलाएं आसान शिकार बन जाती हैं जिसकी वजह से उनके साथ बलात्कार के यह मामले हो रहे हैं.वे खेतों में या उनके घरों में काम करती हैं. उधर युवकों के पास कोई काम नहीं है और ही उन्हें किसी बात का भय है  उनके शोषण की घटनाएं पहले भी होती थी लेकिन अब वो और उनके समाज के लोग चुप रह कर सहने को तैयार नहीं हैं. इसका कारण है उन्हें अब अपने अधिकारों का अहसास होने लगा है और फिर मीडिया और सामाजिक कार्यकर्ता भी अहम भूमिका निभा रहे हैं.'शायद यह मीडिया में हरियाणा से बलात्कार की खबरें छाए रहने का नतीजा ही था कि सोनिया गाँधी को सच्चा खेड़ा गाँव जाकर अत्याचार के शिकार हुए दलित परिवार से मुलाकात करनी पड़ी.