Monday, October 22, 2012

दलित और आदिवासी समुदायों को आज भी उत्पीड़न के दंश


 छह दशक से ज्यादा की आजादी और जनतंत्र के बावजूद अगर समाज का एक बड़ा तबका अपने खिलाफ होने वाली हिंसा के सामने खुद को असहाय पाता है तो निश्चय ही यह एक विचलित कर देने वाली स्थिति है। लेकिन सच्चाई यही है कि  से मुक्ति नहीं मिल सकी है। बल्कि पिछले कुछ सालों में इन वर्गों के खिलाफ हिंसा की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है। पिछले हफ्ते राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष और सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालकृष्णन ने 'अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) कानून-1989 और नियम-1995 के कार्यावन्यन की स्थिति' विषय पर एक रिपोर्ट जारी की। यह रिपोर्ट बताती है कि दलितों और आदिवासियों को अत्याचार से बचाने के लिए विशेष कानून तो बना दिए गए, पर इन्हें ठीक से लागू नहीं किया गया। यही कारण है कि इन विशेष कानूनों के बावजूद उनके खिलाफ हिंसा का सिलसिला थमा नहीं है, बल्कि बढ़ता गया है। देश भर में ऐसी घटनाओं की पड़ताल के बाद तैयार की गई इस रिपोर्ट में कई वैसे तथ्य सामने आए हैं जो इन वर्गों के उत्पीड़न की बदलती प्रकृति और उसमें कमी न आ पाने के कारणों पर रोशनी डालते हैं।
दरअसल, समाज के ताकतवर समूहों के भीतर दलितों-आदिवासियों के प्रति सामंती और मध्ययुगीन पूर्वग्रह अब भी बने हुए हैं। कई ऐसी घटनाएं सामने आ चुकी हैं जिनमें बेहद मामूली बातों के लिए ऊंची कही जाने वाली जाति के लोगों ने किसी दलित बस्ती पर हमला कर दिया और घरों में आग लगा दी। कहीं सिर्फ इसलिए किसी युवक को मार डाला गया,   क्योंकि वह किसी वंचित जाति से होने वजूद पढ़ने में तेज था। हाल ही में खुद मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष को अपने गुजरात दौरे के क्रम में इस शिकायत से रूबरू होना पड़ा कि वहां के कम से कम सतहत्तर गांवों में सवर्ण जाति के लोगों ने दलितों का बहिष्कार करके उन्हें गांव छोड़ने पर मजबूर कर दिया। यह उस राज्य की हकीकत है जिसके तेज विकास का जोर-शोर से प्रचार किया जा रहा है। वहां दोषियों के खिलाफ कोई कार्रवाई करने के बजाय पुलिस अक्सर दलित उत्पीड़न की शिकायतें दर्ज करने से ही इनकार कर देती है। फिर, किसी तरह दर्ज मामलों में सजा सुनाए जाने की दर महज पांच फीसद है।
देश के दूसरे इलाकों में भी तस्वीर इससे ज्यादा अलग नहीं है। इसकी पुष्टि करते हुए इस रपट में कहा गया है कि दर्ज मामलों में कम से कम एक चौथाई को जांच के क्रम में ही 'त्रुटिपूर्ण तथ्यों' का हवाला देकर रफा-दफा कर दिया जाता है या उन्हें अनुसूचित जाति-जनजाति कानून से संबंधित धाराओं के बजाय सामान्य कानूनों के तहत दर्ज किया जाता है। यानी पीड़ितों की मदद करने के बजाय एक तरह से समूचा तंत्र आरोपियों को बचाने या मामले को हल्का बनाने में ही अपनी ऊर्जा लगा देता है। कई बार अदालतें भी ऐसे मामलों में इंसाफ से दूर खड़ी नजर आती हैं। बिहार के बथानी टोला हत्याकांड मामले में पटना हाईकोर्ट के हालिया फैसले से ऐसा ही संदेश गया है। इसलिए मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष ने ठीक ही अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण कानून के तहत दर्ज मामलों की त्वरित सुनवाई के लिए विशेष सरकारी वकील और अलग अदालतों के गठन की वकालत की है। आयोग की इस सिफारिश को स्वीकार किया जाना चाहिए।

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