Sunday, October 14, 2012

आरक्षण में कितनी ईमानदारी?


  
 अधिकांश पार्टियां और नेता पदोन्नति में आरक्षण के मुद्दे पर मानसून सत्र के अंतिम क्षणों में संसद में ट्वंटी-20 क्रिकेट खेलने जैसी मुद्रा में दिखे। सांसद चिल्लाते रहे, कागज फाड़े गए और स्थिति यहां तक पहुंच गई कि इस मुद्दे पर अपने क्षेत्र में अपने वोट बैंक को प्रभावित करने के लिए शारीरिक मुठभेड़ को भी अंजाम दिया गया। एक अपेक्षित आरोप लगा कि यह हंगामा कोल ब्लॉक आवंटन पर उठे बड़े विवाद से निकलने का एक राजनीतिक उपक्रम था।

इस हंगामे का किसी पार्टी ने विरोध नहीं किया। यह बात भी हुई कि संसद में अकसर शोर मचाने वाली समाजवादी पार्टी ने अपने मतदाता आधार के मद्देनजर अन्य पिछड़ा वर्ग को भी पदोन्नति में आरक्षण का लाभ दिलवाने के लिए ही संशोधन विधेयक का विरोध किया है।


इस मामले में एक सच्चाई यह है कि भारत सरकार के 93 सचिवों में से एक भी दलित नहीं है। इस संख्या को दूसरे आंकड़ों के बरक्स रखकर देखें। आंकड़े बताते हैं कि कार्यरत नौकरशाहों में से हर पांच में से एक नौकरशाह दलित समुदाय से है, जो आरक्षण व्यवस्था का परिणाम है।

एक रूढिवादी तर्क के बावजूद कोई भी इस बात को तार्किक ढंग से सही नहीं ठहरा सकता कि क्यों किसी भी दलित को इस लायक नहीं समझा गया कि उसे प्रोन्नत करके नौकरशाही के उच्च पदों पर बिठाया जा सके। स्पष्ट है, व्यवस्था में भेदभाव अभी कायम है, जिसे आरक्षण से या किसी अन्य तरीके से खत्म किए जाने की जरूरत है।


आरक्षण से जुड़ा दूसरा मुद्दा है, भागीदारी की कीमत पर योग्यता की हानि। जिस संविधान की प्रस्तावना में ही अवसर की समानता का उल्लेख है, उसके तहत भागीदारी ही अपने आप में व्यवस्था में योग्यता के होने का प्रमाण है। दूसरी ओर, कार्यपालिका के कामकाज का गिरता स्तर, नैतिकता के मोर्चे पर खराब प्रदर्शन (ईमानदार देशों की सूची में हमारी रैंकिंग 95 है, हम इस मामले में चीन से बहुत पीछे हैं), जाहिर है, योग्यता के पैमाने पर भारतीय व्यवस्था अपना बचाव नहीं कर सकती।


हालांकि इस विधेयक के केंद्र में दो और मुद्दे भी हैं। पहला मुद्दा इसकी प्रक्रिया से संबद्ध है। यह विधेयक सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ है, जोकि पदोन्नति में आरक्षण के मसले पर हमेशा से ही संसद से असहमत रहा है। हमारा सुप्रीम कोर्ट संविधान का रक्षक और व्याख्याकार है, उसके मत या विचार को पलटने की दिशा में बहुत सावधानी बरतनी चाहिए।


एक और मुद्दा, आरक्षण के अपने विविध आयाम हैं। आरक्षण को प्रारंभ में एक नियत समय के लिए लागू किया गया था और इसे अभी भी खत्म नहीं किया जा सका है। प्रावधान तो यह है कि इसके प्रभावों और इससे लाभान्वित होने वालों के सम्बंध में जानकारी को समय-समय पर दुरूस्त करना और लगातार संशोधित करना चाहिए, लेकिन ऎसा नहीं हो रहा है। काफी समय से हम देख रहे हैं कि दलितों और अन्य पिछड़ा वर्ग के बीच कुछ नए शब्दों (जैसे अति पिछड़े, महा दलित, पिछड़ी महिला) का सूत्रपात हुआ है। दलितों और गैर-दलितों के बीच खाई बढ़ती ही जा रही है। अधिकांश मामलों में आरक्षण का फल पुराने लोगों ने ही लगातार चखा है।

आईआईएम और आईआईटी (आईआईएम-अहमदाबाद भी - जिसका मैं भी एक हिस्सा रहा हूं) में प्रवेश लेने वाले आरक्षित श्रेणी के छात्रों की प्रोफाइल देखें, तो आप पाएंगे कि उनमें से अधिकांश छात्र अच्छे परिवारों से ताल्लुक रखते हैं, उनमें से अधिकांश एक खास जाति से आते हैं, जो महानगरों में रहती है या महानगरों से संबद्ध है।


हमें यह मालूम करना चाहिए कि आरक्षण क्यों अपने लक्ष्य को पूरा करने में नाकाम रहा। आरक्षण की वजह से जो क्रांति होने वाली थी, उससेे सुदूर प्रदेशों, गांवों और पिछड़ों में आर्थिक रूप से दरिद्र लोगों के बीच समानता क्यों नहीं आ सकी। यदि आरक्षण समानता लाने की एक अनिवार्य औषधि है, तो हमें दलितों और अन्य पिछड़े वर्ग के उन लोगों को ध्यान में रखना होगा, जिन्हें वास्तव में इसकी जरूरत है।


हमें आरक्षण से जुड़े एक पाखंड पर भी विचार करना चाहिए। ज्यादातर राजनीतिक पार्टियां पदोन्नति में आरक्षण सम्बंधी विधेयक को पारित करने के लिए सहमत हो गई हैं, लेकिन उन्हें अपने दलीय आधार में यह भी देखना चाहिए कि उन्होंने दल के अंदर कितने दलितों को भागीदार बनाया है। दलों के निर्णायक दफ्तरों में बहुत कम ऎसे पद हैं, जिनपर दलित विराजमान हैं। इस सच्चाई को किनारे कर दीजिए कि हर पांचवां सांसद दलित है, लेकिन सच है कि कोई पार्टी किसी दलित को प्रधानमंत्री बनवाने में कामयाब नहीं हुई है।


देश में 13 प्रधानमंत्री हुए हैं, जिनमें से 7 प्रधानमंत्री कांग्रेस ने दिए हैं। जब पार्टियां अपनी कोर कमेटियां बनाती हैं, तो उनके चयन मापदंड में जाति का पिछड़ापन कहीं नहीं दिखता है। वरिष्ठता, पार्टी को योगदान, मतदाताओं के बीच व्यक्तिगत प्रभाव ही ज्यादा मायने रखता है। ऎसा उस संसदीय व्यवस्था में हो रहा है, जिसमें छह दशक से जाति के आधार पर सीटें आरक्षित हैं। लोकतंत्र तभी मजबूत होगा, जब राजनीतिक पार्टियां दलितों और पिछड़ी जातियों को उच्च स्तर पर पार्टी के नेतृत्व में ज्यादा जगह देंगी।


अंतत: जो राजनीतिक दबाव बन रहा है, उसके तहत यह विधेयक 2014 में होने वाले लोकसभा चुनावों के आस-पास पारित हो जाएगा और लागू भी हो जाएगा। हमें इस बात पर बल देना होगा कि इस आरक्षण को शुद्ध राजनीतिक रणनीति के तहत नहीं, बल्कि वैज्ञानिक सोच और सामाजिक समझ के साथ लागू किया जाए। इसके प्रभाव की समीक्षा के पैमाने तय करने पड़ेंगे, अच्छे और बुरे प्रभावों की निगरानी करनी पड़ेगी और प्रभाव सम्बंधी रिपोर्टो को सार्वजनिक करना होगा। हर पांच साल में यह देखना पड़ेगा कि समाज के कौन-से हिस्से लाभान्वित हो रहे हैं।

शायद, आरक्षण प्रतिनिधित्व की अल्पकालिक खाइयों को पाटने में ही सफल हो सकेगा। जिस देश में 25,000 से ज्यादा जातियां, उप-जातियां हैं, जिस देश की मुद्रा पर ही 15 भाषाएं मुद्रित हैं, उस देश मे विभाजन और गुट-वाद बड़ी चुनौती बना रहेगा, इस पक्ष पर ध्यान देने की जरूरत है।
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पदोन्नति में आरक्षण पर अधिकतर दल सहमत
सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को पदोन्नति में आरक्षण को लेकर संविधान संशोधन के मुद्दे पर लगभग सभी दलों में सहमति बन गई है.
उल्लेखनीय है कि नौकरियों में पदोन्नति का मसला काफी पेचीदा रहा है और अप्रैल के महीने में सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार के इस फैसले को खारिज कर दिया था जिसमें राज्य सरकार ने पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को पदोन्नति में आरक्षण देने की घोषणा की थी.
उत्तर प्रदेश सरकार ने यह घोषणा पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के शासनकाल में की थी.
इसी कारण अब सरकार इस मुद्दे पर संविधान में संसोधन लाने की कोशिश कर रही है जिसके लिए मंगलवार को सर्वदलीय बैठक आयोजित की गई थी.
प्रमुख विपक्षी दल बीजेपी का कहना है कि वो कमजोर तबके के लोगों को ताकत दिलाने के पक्ष में है लेकिन उन्होंने कहा कि सरकार को संवैधानिक और क़ानूनी पक्षों को ध्यान में रखना

समाजवादी पार्टी को आपत्ति

सरकार को समर्थन दे रहे दल समाजवादी पार्टी ने हालांकि पदोन्नति में आरक्षण को लेकर आपत्ति जताई थी.
समाजवादी पार्टी का कहना है कि अगर एससी और एसटी को आरक्षण मिला तो इससे ओबीसी समुदाय को काफी नुकसान हो सकता है.
ऐसा माना जाता है कि समाजवादी पार्टी का एक बड़ा वोट बैंक ओबीसी समुदाय से आता है.
पदोन्नति में आरक्षण के मुद्दे पर संविधान संशोधन को लेकर वाम दलों ने भी सरकार का समर्थन किया है लेकिन कहा है कि जो भी संसोधन हो वो संवैधानिक रुप से आगे चलाने लायक भी होना चाहिए.
अभी ये साफ नहीं है कि सरकार मानसून सत्र में ही ये संसोधन लाएंगे या इसके लिए अगले सत्र का इंतजा़र किया जाएगा.
प्रधानमंत्री का कहना था कि सभी दलों ने बहुत अच्छे सुझाव दिए हैं और कोशिश हो रही कि वैधानिक रुप से ऐसा संशोधन लाया जाए तो लंबे समय तक चल सके.
नौकरियों में पदोन्नति का मामला काफी विवादास्पद रहा है और इसको लेकर काफी राजनीति होती रही है. पदोन्नति ही नहीं बल्कि कई समूह पूरी आरक्षण व्यवस्था का भी विरोध करते रहे हैं लेकिन कोई भी राजनीतिक दल खुल कर इसका विरोध नहीं कर रहा है.
भले ही अभी राजनीतिक पार्टियां संशोधन पर राज़ी दिख रही हैं लेकिन ये गौरतलब होगा कि आने वाले दिनों में जब संशोधन संसद में पेश होता है तब उस पर राजनीतिक दल क्या रुख अपनाते हैं.

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