Thursday, October 11, 2012

दलित और दलित राजनीति


अर्से बाद देश का दलित समाज और राजनीति मीडिया की चर्चा में है। लखनऊ में बीएसपी सुप्रीमो मायावती की महासंकल्प रैली, लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार की पहल पर कॉर्पोरेट सेक्टर का 5 लाख दलित युवक-युवतियों को प्रशिक्षित कर नौकरी देने का वादा, कांग्रेस नेता और राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पीएल पुनिया की ओर से दलित एंथम के रूप में एक फिल्मी एलबम का विमोचन, और हरियाणा में पिछले एक महीने में दलित लड़कियों के साथ हुए 10 से ज्यादा बलात्कारों के बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की ऐसे ही एक परिवार से मिलने के लिए जींद यात्रा। अचानक आई इस सक्रियता की वजह समझना मुश्किल नहीं है। पूरे देश के पैमाने पर दलित वोटरों में मुख्य गति अभी बीएसपी और एक हद तक कांग्रेस की ही है। सामाजिक समीकरणों की उलट-पुलट को देखते हुए दोनों पाटिर्यों ने इस समुदाय को अपने साथ रखने के लिए प्रयास तेज कर दिए हैं।
समाज की मुख्यधारा मुसलमानों और दलितों को राजनीतिक तुष्टीकरण का फायदा उठाने वाला मानती है। परंपरा से अर्जित पुराने दुराग्रहों के अलावा यह नया पूर्वाग्रह भी इन दोनों समुदायों को बाकियों से अलग-थलग करने वाला साबित हो रहा है। लेकिन दलितों को मजबूत बनाने के इतने सारे संकल्पों और उसे मोहरा बनाकर की जाने वाली इतनी मुंहफट राजनीति के बावजूद क्या सचमुच उनकी हालत इतनी सुधर गई है कि वे गर्व से सिर उठाकर अपनी पहचान के साथ कहीं भी चैन से रह सकें? हकीकत जानने के लिए दोनों मुख्य दलित समर्थक पाटिर्यों के शासन में दलितों की स्थिति का जायजा लेना काफी रहेगा। हरियाणा का हाल तो खैर सबके सामने है, जहां कांग्रेस लगातार अपने दूसरे कार्यकाल के अधबीच में है।
लेकिन अभी छह-सात महीने पहले तक यूपी में पांच साल चले बीएसपी राज में भी उनकी हालत इससे ज्यादा अलग नहीं थी। उस समय भी कई मामले ऐसे आए थे, जब खुद बीएसपी के गैर-दलित नेताओं ने, यहां तक कि जनप्रतिनिधियों और मंत्रियों ने दलितों पर अमानुषिक अत्याचार किए थे और मुख्यमंत्री ने दोषियों के खिलाफ त्वरित कार्रवाई करने के बजाय, उन घटनाओं को अपनी सरकार के खिलाफ साजिश बताकर आरोपियों का भरसक बचाव किया था। कमजोर समुदायों की विडंबना यही है कि उनके लिए प्रतीक बहुत मायने रखते हैं। दलित महापुरुषों की मूर्तियां बिठाकर, उनकी कही बातों का हवाला देकर दलितों के वोट बड़ी आसानी से ऐंठे जा सकते हैं। लेकिन बात जब उनकी रोजी-रोटी, इज्जत-आबरू और समाज में उनकी जगह की आती है, तो नेताओं को उनके चेहरे याद नहीं रहते। अमुक राजनेता के अमुक पद पर बिठा दिए जाने से दलितों का भला हो जाता है। यहां तक कि उनके खरीदे महल-अटारी भी दलितों के सम्मान में चार चांद लगाने लगते हैं। सियासत में मजबूत और हकीकत में कमजोर होते जाने की इससे बड़ी मिसाल और क्या हो सकती है कि सच्चर कमिटी रिपोर्ट की तरह दलितों की वास्तविक सामाजिक-आर्थिक स्थिति का कोई ठोस आकलन भी अभी तक प्रस्तुत नहीं किया जा सका है।
 

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